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समग्र ग्राम सेवा

सच्चा भारत उसके 7 लाख गांवों में बसता है। यदि भारतीय सभ्यता को एक स्थायी विश्व व्यवस्था के निर्माण में अपना पूर-पूरा योगदान करना है तो गांवों में बसने वाली इस विशाल जनसंख्या को फिर से जीना सिखाना होगा।

हरि, 27-4-1947, पृ. 122


आज हमारे गांव जिन तीन बीमारियों के चंगुल में हैं, वे हैं : (1) सामूहिक स्वच्छता का अभाव, (2) अपर्याप्त आहार, (3) जडता...। ग्रामवासियों को स्वयं अपने कल्याण में रुचि नहीं है। वे सफाई के आधुनिक तरीकों की खूबियां नहीं देख पाते। वे अपने खेतों को जोतने या अरसे से चले आ रहे मेहनत के कामों के अलावा कोई और काम करना नहीं चाहते। यह कठिनाइयां वास्तविक और गंभीर हैं। लेकिन हमें इनसे घबराना नहीं चाहिए।

हमें अपने ध्येय में अदम्य आस्था होनी चाहिए। हमें लोगों के साथ धीरज से पेश आना चाहिए। अभी हम स्वयं ही ग्राम-कार्य में नौसिखिये हैं। हमें पुरानी बीमारियों का इलाज करना है। अगर हममें धैर्य और अध्यवसाय होगा तो हम बडी-से-बडी कठिनाइयों को पार कर सकेंगे। हम उन परिचारिकाओं की तरह से हैं जिन्हें अपने रोगियों को इसलिए छोडकर नहीं चले जाना चाहिए कि वे असाध्य रोगों से ग्रस्त हैं

हरि, 16-5-1936, पृ. 111-112


गांव बहुत लम्बे समय से उन लोगों की उपेक्षा के शिकार रहे हैं जो शिक्षित हैं। शिक्षित लोग शहरों में जा बसे हैं। ग्राम आंदोलन गांवों के साथ स्वस्थ संपर्क स्थापित करने का एक प्रयास है जिसके लिए उन लोगों को गांवों में जाकर बसने के लिए प्रेरित करना है जिनमें सेवा की उत्कट भावना है और जो ग्रामवासियों की सेवा में आत्माभिव्यक्ति का सुख अनुभव करते हैं...।

जो लोग सेवा की भावना से गांवों में जाकर बस गए हैं, वे अपने सामने आने वाली कठिनाइयों से घबराये नहीं हैं। वे वहां जाने से पहले ही जानते थे कि उन्हें ग्रामीण भाइयों की रुखाई सहित अनेक कठिनाइयों का सामना करना पडेगा। इसलिए गांवों की सेवा वही लोग कर सकेंगे जिन्हें अपने में और अपने ध्येय में आस्था है।

कार्यकर्ता

लोगों के बीच रहकर सच्चा जीवन बिताना अपने आप में एक पदार्थ पाठ है। इसका अपने आसपास के वातावरण पर प्रभाव अवश्य पडना चाहिए। कठिनाई शायद यह है कि हमारे युवाजन सेवा की भावना के बगैर ही केवल जीविकोपार्जन के लिए गांवों में गए हैं।

मैं मानता हूं कि जो लोग धनोपार्जन के विचार से गांवों में जाते हैं, उनके लिए वहां कोई आकर्षण नहीं है। यदि सेवा की प्रेरणा नहीं है तो ग्रामजीवन नवीनता की अनुभूति समाप्त होते ही नीरस लगने लगेगा। गांवों में जाने वाले युवकों को थोडी-सी कठिनाई आते ही अपने ध्येय को छोड नहीं देना चाहिए। धैर्यपूर्वक प्रयास करने से सिद्ध हो जाएगा कि गांवों के लोग शहर के लोगों से ज्यादा भिन्न नहीं हैं और उन पर आपके प्रेम और उनकी समस्याओं की ओर ध्यान दिए जाने का अनुकूल प्रभाव अवश्य पडेगा।

यह निश्चित रूप से सही है कि गांवों में आपको देश के महान नेताओं से संपर्क के अवसर नहीं मिल पाएंगे। लेकिन ज्यों-ज्यों ग्राम मानसिकता में वृद्धि होगी त्यों-त्यों नेताओं को भी गांवों का दौरा करना आवश्यक प्रतीत होने लगेगा और वे गांवों के अधिकाधिक संपर्क में आएंगे। इसके अलावा, अगर आपको महान पुरुषों का सत्संग चाहिए तो आप चैतन्य, रामकश्ष्ण, तुलसीदास, कबीर, नानक, दादू, तुकाराम, तिरुवल्लुवर आदि अनेक जाने-माने महापुरुषों की रचनाओं को पढकर उसका सुख प्राप्त कर सकते हैं। इनके अलावा और भी अनेक संत हुए हैं जो इन्हम् के समान प्रसिद्ध और पवित्र आत्मा थे।

साहित्य

कठिनाई अपने मन को स्थायी मूल्यों को ग्रहण करने के अनुकूल बनाने की है। यदि हमें राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक और वैज्ञानिक-क्षेत्रों से संबंधित आधुनिक विचारों का अध्ययन करना है तो हमारी उत्सुकता को शांत करने के लिए साहित्य उपलब्ध है। लेकिन मैं मानता हूं कि जितनी सरलता से धार्मिक साहित्य उपलब्ध है, उतनी सरलता से आधुनिक साहित्य उपलब्ध नहीं है। संतों ने आम जनता के लिए लिखा और उपदेश किया था। अभी आधुनिक विचारों को आम जनता के समझने योग्य भाषा में अनुदित करने की परंपरा ठीक से शुरू नहीं हुई है। लेकिन समय के साथ-साथ इसमें प्रगति अवश्य होगी।

अतः मैं युवकों को परामर्श दूंगा कि वे हिम्मत न हारें और अपने प्रयास जारी रखें तथा अपनी उपस्थिति से गांवों को रहने योग्य और आकर्षक बनाएं। यह काम वे तभी कर सकते हैं जबकि वे गांवों की सेवा उस रूप में करें जिस रूप में वह ग्रामवासियों के लिए स्वीकार्य हो। इसकी शुरुआत हर आदमी अपने परिश्रम के द्वारा गांवों की सफाई करके और अपनी क्षमता के अनुसार गांवों में निरक्षरता का निवारण करके कर सकता है। यदि कार्यकर्ताओं का रहन-सहन साफ-सुथरा, व्यवस्थित और परिश्रमपूर्ण होगा तो इसमें संदेह नहीं है कि वे जिन गांवों में काम कर रहे होंगे वहां इसका प्रभाव अवश्य फैलेगा।

हरि, 20-2-1937, पृ. 16

समग्र ग्राम-सेवा

समग्र ग्राम-सेवा का अपने गांव के प्रत्येक निवासी से परिचय होना चाहिए और जितना बन पडे उतनी सेवा ग्रामवासियों की करनी चाहिए। इसका मतलब यह नहीं है कि वह सारा काम अकेले ही कर सकता है। वह ग्रामवासियों को यह बताएगा कि वे किस प्रकार अपनी सहायता स्वयं कर सकते है और उन्हें जो सहायता एवं सामग्री की आवश्यकता होगी, उसे उनके लिए उपलब्ध कराएगा। वह अपने सहायकों को भी प्रशिक्षित करेगा। वह ग्रामवासियों के मन को इस तरह जीतने का प्रयास करेगा कि वे उसके पास परामर्श के लिए आने लगेंगे।

मान लीजिए मैं एक कोल्हू लेकर किसी गांव में जाकर बस जाता हूं तो मैं 15-20 रुपये माहकर कमाने वाला कोई साधारण तेली कहम् हो।ंगा। मैं तो एक महात्मा तेली हो।ंगा। मैंने यहां "महात्मा" शब्द का प्रयोग विनोद के लिए किया है; मेरा असली आशय तो है कि तेली के रूप में मैं ग्रामवासियों के अनुकरण के लिए एक आदर्श बन जाउंगा। मैं ऐसा तेली होउंगा जिसे गीता और कुरान की जानकारी है। मैं इतना पढा-लिखा होउंगा कि उनके बच्चों को शिक्षा दे सकूं। यह बात और है कि मुझे इसके लिए शायद समय न मिले। तब गांव वाले मेरे पास आएंगे और मुझसे कहेंगे, "मेहरबानी करके हमारे बच्चों की शिक्षा की व्यवस्था कर दीजिए।" तब मैं उनसे कहूंगा, "मैं आपके लिए एक शिक्षक की व्यवस्था कर सकता हूं, पर आपको उसका खर्च बर्दाश्त करना होगा।" और वे खुशी-खुशी इसके लिए तैयार हो जाएंगे।

मैं उन्हें कताई सिखा।ंगा और जब वे मुझसे किसी बुनकर को लाने के लिए आग्रह करेंगे तो मैं उन्हें उसी प्रकार बुनकर लाकर दूंगाजिस प्रकार मैंने उन्हें शिक्षक लाकर दिया है। यह बुनकर उन्हें सिखायेगा कि वे अपना कपडा किस प्रकार बुन सकते है। मैं उन्हें स्वास्थ्य-रक्षा और सफाई के महत्व के प्रति जागरूक करूंगा और जब वे मुझसे कहेंगे कि मैं उनके लिए एक मेहतर की व्यवस्था कर दूं तो मैं कहूंगा, "मैं आपका मेहतर हूं और आपको इस काम की शिक्षा मैं दूंगा।"

समग्र ग्राम-सेवा की मेरी धारणा यह है। आप कह सकते हैं कि इस जमाने में मुझे ऐसा तेली कहम् नहीं मिलेगा जैसा कि मैंने ।पर वर्णन किया है। मेरा उनर होगा कि यदि ऐसा है तो हम इस जमाने में अपने गांवों के सुधार की आशा नहीं कर सकते... आखिर, जो आदमी तेल-मिल चलाता है वह तेली तो होता ही है। उसके पास पैसा तो होता है, पर उसकी शिक्षा उसके पैसे में निहित नहीं होती। उसकी सच्ची शिक्षा उसके ज्ञान में निहित होती है। सच्चा ज्ञान मनुष्य को नैतिक प्रतिष्ठा और नैतिक शक्ति देता है। ऐसे व्यक्ति से हर कोई परामर्श लेना चाहता हैं।

हरि, 17-3-1946, पृ. 42

आर्थिक सर्वेक्षण

सभी गांवों का सर्वेक्षण कराया जाएगा और उन चीजों की सूची तैयार कराई जाएगी जो कम से कम या किसी तरह की सहायता के बिना स्थानीय रूप से तैयार की जा सकती हैं और जो या तो गांवों के ही इस्तेमाल में आ जाएंगी या जिन्हें बाहर बेचा जा सकेगा। उदाहरण के लिए, कोल्हू से पेरा गया तेल और खली, कोल्हू से पेरा गया जलाने का तेल, हाथ से कुटे चावल, ताड गुड, शहद, खिलौने, चटाइयां, हाथ से बना कागज, साबुन आदि। इस प्रकार यदि पर्याप्त ध्यान दिया जाए तो ऐसे गांवों में जो निष्प्राण हो चुके हैं या निष्प्राण होने की प्रव्या में हैं, नवजीवन का संचार हो सकेगा तथा उनकी स्वयं अपने और भारत के शहरों और कस्बों के इस्तेमाल के लिए आवश्यकता की अधिकांश वस्तुओं के निर्माण की अनंत संभावनाओं का पता चल सकेगा।

हरि, 28-4-1946, पृ. 122

कला और शिल्प

ग्रामवासियों को अपने कौशल में इतनी वृद्धि कर लेनी चाहिए कि उनके द्वारा तैयार की गई चीजें बाहर जाते ही हाथोंगहाथ बिक जाएं। जब हमारे गांवों का पूर्ण विकास हो जाएगा तो वहां उंचे दर्जे के कौशल और कलात्मक प्रतिभा वाले लोगों की कमी नहीं रहेगी। तब गांवों के अपने कवि भी होंगे, कलाकार होंगे, वास्तुशिल्पी होंगे, भाषाविद् होंगे और अनुसंधानकर्ता भी होंगे। संक्षेप में, जीवन में जो कुछ भी प्राप्य है, वह सब गांवों में उपलब्ध होगा।

आज हमारे गांव गोबर के ढेर मात्र हैं। कल वे सुंदरगसुंदर वाटिकाओं का रूप ले लेंगे जिनमें इतनी प्रखर बुद्धि के लोग निवास करेंगे जिन्हें न कोई धोखा दे सकेगा और न उनका शोषण कर सकेगा। उपर बताई गई पद्धति के अनुसार गांवों के पुनर्निर्माण का कार्य तत्कालश्शुरू कर देना चाहिएकृ गांवों का पुनर्निर्माण अस्थायी नहीं, स्थायी आधार पर किया जाना चाहिए।

हरि, 10-11-1946, पृ. 394

आर्थिक पुनर्गठन

पूर्ण स्वदेशी से संबंधित अपने लेखन में मैंने बताया है कि किस प्रकार इसके कुछ पहलुओं को तुंत हाथ में लिया जा सकता है जिससे लाखों भूखे लोगों को आर्थिक दृष्टि से और स्वास्थ्य-रक्षा की दृष्टि से लाभ पहुंच सकता है। देश के धनी-से-धनी व्यक्ति इस लाभ में भागीदार हो सकते हैं। मान लीजिए, यदि पुरानी पद्धति के अनुसार गांवों में चावल की हथकुटाई हो सके तो इससे मिलने वाली मजदूरी उन बहनों की जेब में जाएगी जो चावल कूटने का काम करेंगी और चावल खाने वाले लाखों लोगों को पालिश किए हुए चावल से प्राप्त होने वाली शुद्ध माडी के स्थान पर हाथ से कुटे चावल से मिलने वाले पोषक तत्वों का लाभ प्राप्त हो सकेगा।

मनुष्य का लोभ जो हमें लोगों के स्वास्थ्य या उनकी संपनि की कोई परवाह ही नहीं करने देता, चावल पैदा करने वाले क्षेत्रों में सर्वत्र फैले भद्दे चावल-मिलों के लिए उनरदायी है। यदि लोकमत-शक्तिशाली बन जाए तो वह बगैर पालिश किए चावल के उपयोग पर जोर देकर सब चावल-मिलों को बंद करा सकता है और चावल-मिलों के मालिकों से अपील कर सकता है कि वे ऐसी चीज का उत्पादन बंद कर दें जिससे समूचे राष्टं के स्वास्थ्य की हानि होती है और गरीबों को आजीविका के एक निर्दोष साधन से वंचित होना पडता है।

हरि, 26-10-1934, पृ. 292


...मेरा कहना तो यह है कि अगर गांव नष्ट होते हैं तो भारत भी नष्ट हो जाएगा। तब भारत भारत नहीं रहेगा। दुनिया में भारत का अपना मिशन ही खत्म हो जाएगा। गांवों का पुनरुज्जीवन तभी संभव है जब उनका शोषण समाप्त हो। बडे पैमाने के औद्योगीकरण से अनिवार्यतः ग्रामवासियों का निष्क्रीय अथवा सव्यि शोषण होगा, क्योंकि औद्योगीकरण के साथ प्रतियोगिता और विपणन की समस्याएं जुडी हुई हैं।

इसलिए हमें गांवों को स्वतःपूर्ण बनाने पर जोर देना होगा जो अपने इस्तेमाल की चीजें खुद बनाएंगे। यदि ग्राम उद्योगों के इस स्वरूप की रक्षा की जाती है तो फिर ग्रामवासियों द्वारा उन आधुनिक मशीनों और औजारों का इस्तेमाल करने पर भी कोई आपनि नहीं है जिन्हें वे बना सकते हों और जिनका इस्तेमाल करने का सामर्थ्य उनमें हो। यह जरूर है कि उन्हें दूसरों के शोषण का साधन नहीं बनाया जाना चाहिए।

हरि, 29-8-1936, पृ. 226

अहिंसक अर्थव्यवस्था

आप फैक्टरी सभ्यता के उपर अहिंसा का भवन खडा नहीं कर सकते, पर स्वतःपूर्ण गांवों के पर कर सकते हैं... ग्राम अर्थव्यवस्था की जो मेरी धारणा है, उसमें शोषण का कोई स्थान नहीं है, और शोषण ही हिंसा का सार है। इसलिए यदि आप अहिंसक बनना चाहते हैं तो आपको अपने अंदर गांव की मानसिकता का विकास करना होगा और गांव की मानसिकता के मानी हैं चरखे में आस्था।

हरि, 4-11-1939, पृ. 331


हमें दो में से एक चीज चुननी होगी - गांवों का भारत जो उतने ही प्राचीन हैं जितना कि स्वयं भारत है, या शहरों का भारत जो विदेशी आधिपत्य की देन हैं। आज प्रभुत्व शहरों का है, जो गांवों को इस तरह चूस रहे हैं कि वे खंडहर हुए जा रहे हैं। मेरी खादी की मानसिकता मुझे बताती है कि जब शहरों का प्रभुत्व समाप्त हो जाएगा तो वे गांवों के सहायक की भूमिका में आ जाएंगे। गांवों का शोषण अपने आप में एक संगठित हिंसा है। यदि हम चाहते हैं कि स्वराज अहिंसा पर आधारित हो तो हमें गांवों को उनका उचित स्थान देना होगा

हरि, 20-1-1940, पृ. 423

आहार विषयक सुधार

चूंकि गांवों के आर्थिक पुनर्गठन का काम आहार विषयक सुधारों से शुरू किया गया है, इसलिए इस बात का पता लगाना आवश्यक है कि वे सादे-से-सादे और सस्ते खाद्य पदार्थ कौन-से हैं जिनसे ग्रामवासी अपने खोए हुए स्वास्थ्य को पुनः प्राप्त कर सकते हैं। उनके आहार में हरे पने शामिल करने से वे उन अनेक बीमारियों का शिकार होने से बच सकेंगे जिनसे वे इस समय ग्रस्त हैं।

ग्रामवासियों के आहार में विटामिनों की कमी है; इनमें से बहुत-से विटामिन ताजे हरे पनों से मिल सकते हैं। एक प्रसिद्ध डाक्टर ने मुझे बताया है कि हरे पनों के सही इस्तेमाल से आहार विषयक प्रचलित विचारों में वंति आ सकती है और जो पोषण इस समय दूध से मिल रहा है, वह हरे पनों से प्राप्त किया जा सकता है।

हरि, 15-2-1935, पृ. 1

शक्तिचालित मशीनें

अगर प्रत्येक गांव के सभी घरों में बिजली आ जाए तो मुझे ग्रामवासियों द्वारा अपनी मशीनों और औजारों को बिजली से चलाए जाने पर कोई आपनि नहीं होनी चाहिए। लेकिन बिजलीघरों का स्वामित्व या तो राज्य के पास होना चाहिए या ग्राम समुदायों के पास, जैसा कि इस समय चरागाहों के विषय में है। लेकिन जहां न बिजली है, न मशीनें हैं, वहां खाली हाथ क्या करें ?

हरि, 22-6-1935, पृ. 146


मैं हजारों गांवों में लगी अनाज पीसने की चक्कियों को लाचारगी की हद मानता हूं। मेरा अनुमान है कि इन सभी इंजनों और चक्कियों का विनिर्माण भारत में ही नहीं होताकृ गांवों में बडी संख्या में इन मशीनों और इंजनों को लगाना लोभ-लालच की निशानी भी है। क्या गरीब आदमी के पेट पर लात मारकर इस तरह अपनी जेब भरना ठीक है ? ऐसी हर मशीन हजारों हथचक्कियों को बेकार कर देती है जिससे हजारों घरेलू औरतें बेरोजगार हो जाती हैं और चक्कियां बनाने वाले कारीगरों का धंधा चौपट हो जाता है।

इसके अलावा यह भी है कि यह प्रवृनि संवमक होती है, इसलिए यह गांव के सभी उद्योगों को अपनी चपेट में ले लेगी। अगर ग्रामोद्योग नष्ट हो गए तो कलाओं का भी क्षय हो जाएगा। हां, अगर पुरानी दस्तकारियों का स्थान नयी दस्तकारियां ले लें तो कोई विशेष आपनि की बात नहीं है। लेकिन वैसा नहीं होता। जिन हजारों गांवों में शक्तिचालित आटा चक्कियां लग गई हैं, वहां मुंह अंधेरे सुनाई देने वाला हथचक्कियों का मधुर संगीत अब सदा के लिए सो गया है।

हरि, 10-3-1946, पृ. 34

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