गाँधी शिक्षा – भारत की आवश्यकता एवं अनिवार्यता |
मीरा महेता महान विभूतियाँ काल-प्रसूत होती हैं । इतिहास इस बात का साक्षी है कि जब-जब सामाजिक, धार्मिक तथा राजनैतिक अवमूल्यन हुआ है, तब-तब अवश्य ही किसी महापुरुष का अवतरण भारत वसुन्धरा पर होता रहा है । 'यदा-यदा हि धर्मस्य...'जैसी पंक्तियाँ भी इस तथ्य की संपुष्टि करती हैं । भारत-वसुन्धरा को अपने पद-रज से विभूषित करनेवाले मोहनदास करमचन्द गाँधी को एक अवतारी व्यक्तित्व के रूप में स्वीकार किया जाये तो कोई अत्युक्ति न होगी । वे व्यक्ति होकर एक विराट राष्ट्र की प्रतिमूर्ति थे । वे 'स्व' से हटकर 'पर'की उदारवादी चेतना की अमर ज्योति के उद्गाता थे । उस महामानव ने सत्य-अहिंसा के जिस अमोघ शस्त्र द्वारा भारत जैसे विशाल राष्ट्र को गुलामी की बेडियों से मुक्त कराया, वह विश्व के इतिहास में एक मिसाल बन गई । महात्मा गाँधी अपने पेशे से तो अध्यापक नहीं थे, परन्तु उनके जीवन का महत्त्वपूर्ण अंश-धर्म, जाति, वर्ग-वर्ण या स्त्री-पुरुष के वर्ग भेद से ऊपर उठकर, जीवनभर मानव जाति का अध्यापक होना था । मनुष्य-जीवन में वे सामाजिक एवं नैतिक गुणों के विशेष आग्रही थे । उनका यह अटूट विश्वास था कि भारत के लोगों के लिए स्वतंत्र एवं उच्च जीवन-निर्माण- हेतु ये गुण आवश्यक ही नहीं, बल्कि अपरिहार्य हैं । जीवन के उत्कर्ष एवं विचारों की उदात्तता हेतु गाँधीजी शिक्षा को विशेष महत्त्व देते थे । वे शिक्षा को ज्ञान विशेष की सीमित दीवारों तक ही स्वीकार नहीं करते थे, बल्कि उनका मानना था कि शिक्षा का उद्देश्य जीवन के विविध क्षेत्रों की समस्याओं का समाधान करना तथा विघटित समाज को सुगठित बनाना है । उनका विश्वास था कि शिक्षा वही शिक्षा है, जिसमें स्वाश्रय के द्वारा सर्जनात्मक क्रियाशीलता की अनंत संभावना हो, मानव-मानव को जोड़ने की उदार चेतना हो तथा राष्ट्र बनाने की अपरिमित राष्ट्रभावना हो । शिक्षा के संबंध में उनकी बड़ी व्यापक दृष्टि थी । अपने जीवन के अंतिम दशक में गाँधीजी इस निष्कर्ष पर आये थे कि यदि मानव-उत्थान को किसी भी रूप में गति प्रदान करना है या लाभान्वित करना है तो पूरे राष्ट्र के शिक्षाविदों को प्रत्याक्ष या परोक्ष रूप में निर्माणकारी शिक्षा में विशेष रुचि लेनी होगी । इससे यह स्वत सिध्द हो जाता है कि गाँधीजी भले ही एक समाज सुधारक थे, प्रार्थना पुरुष थे, राष्ट्र के सच्चे रहबर थे, पर वे एक चिन्तनशील शिक्षाविद् पुरुष भी थे। वे शिक्षा को तत्त्वज्ञान, अध्यात्म, जीवन-उत्थान आदि विविध पहलुओं से जोड़कर देखना-परखना चाहते थे । वे कहते थे कि "मैंने अब तक जो कुछ भी हिन्दुस्तान को दिया है, उसमें यह शिक्षा-योजना और पध्दति अति महत्त्वपूर्ण है । मैं नहीं मानता कि इससे भी मूल्यवान और उत्तम कुछ और भी है या हो सकता है या मैं दे सकता हूँ ।’’ गाँधीजी हमेशा शिक्षा के क्षेत्र में तत्त्वज्ञान को विशेष महत्त्व देते रहे। उनकी दृष्टि में तत्त्वज्ञान और शिक्षा एक ही सिक्के के दो पहलू हैं । जेम्स शेस नामक विद्वान ने भी तत्त्वज्ञान और शिक्षा की अनिवार्यता, अनन्यता एवं एकात्मकता को स्वीकार करते हुए लिखा है, "तत्त्वज्ञान चिन्तनात्मक है, जबकि शिक्षा क्रियात्मक है। जीवन में शिक्षा के महत्त्व को स्वीकार करनेवाले व्यक्ति अन्य व्यक्ति को भी वैसी ही विचारधारा में प्रवाहित करने का प्रयत्न करते हैं ।" अर्थात् शिक्षा अन्तत अनिवार्य रूप में तत्त्वज्ञान पर आधारित है । बहुधा यह देखा जाता है कि महान् तत्त्वचिंतक हमेशा महान् शिक्षाविद् की भूमिका का निर्वाह करते रहे हैं। तत्त्वज्ञानी कल्पना-जगत् में विचरण नहीं करते, बल्कि स्वाभाविक रूप में शिक्षाविद् बनते हैं । विश्व में अनेकानेक ऐसे महापुरुष हैं, जो इसकी साक्षी भरते हैं । पश्चिम में सुकरात से लेकर ज्होन ङपुर और पूर्व में याज्ञवल्क्य से लेकर गाँधीजी तक सभी महान् तत्त्वचिन्तकों को जीवन और उसकी क्रियाशीलता में से ऐसे दृष्टांत सुलभ हो जाते हैं। उन्होंने जो कुछ किया, वही उनकी शिक्षा-प्रणाली बन गई । प्रत्येक राष्ट्र, राज या राज्य की शिक्षा-प्रणाली अपनी आवश्यकता के अनुरूप सत्किंचित् भिन्न हो सकती है, पर उसके महत् उद्देश्य में जो मानवीय चेतना का उत्कर्षण करना है, कोइख परिवर्तन नहीं हो सकता। पर अपनी नींव म़जबूत करने के लिए राजकीय व्यवस्था स्वयं के अनुरूप शिक्षा और शिक्षा और शिक्षा के सिध्दान्त तथा उसके अमलीकरण के स्वरूप को निश्चित कर सकते हैं। शिक्षा के किसी भी कार्य को गतिशील बनाना हो तो उसे राजरूप दिया जाय-सफलता अवश्य प्राप्त होगी । गॉंधी जी के मतानुसार शिक्षा का तत्त्वज्ञान अधिकतर जीवन-तत्त्व में ही सम्मिलित है । इस उद्देश्य को सिध्द करने के लिए तत्संम्बधी अनेक कार्यक्रमों का आयोजन किया जान चाहिए, कार्यपध्दतियाँ बनाई जानी चाहिए, शिक्षक तैयार किये जाने चाहिए, उनके लक्ष्य एवं आदर्शों को ध्यान में रखकर उनका मूल्यांकन भी करते रहना चाहिए। शिक्षा का तत्त्वज्ञान मुख्यत निम्न बातों पर आधारित है - (1) शिक्षा का तत्त्वज्ञान स़िर्फ शिक्षा तक ही सीमित नहीं होना चाहिए । (2) शिक्षा के उद्देश्यों एवं लक्ष्य को निर्धारित करना चाहिए । शिक्षा के मुख्य उद्देश्यों में व्यक्ति-विकास तथा उसके सुखी जीवन के साथ-साथ सामाजिक हित को सामाविष्ट किया जाना चाहिए । (3) शिक्षा के महत्त्वपूर्ण सिध्दांतों का मूल्यांकन एवं शिक्षा की कार्य-प्रणाली का अमलीकरण होना चाहिए । इन सारे तथ्यों को ध्यान में रखकर किसी देश या राज्य की शिक्षा-प्रणाली का क्रियान्वयन किया जान चाहिए । भारतीय शिक्षा का मूलभूत उद्देश था- 'सर्वे भवन्तु सुखिन'अर्थात् सामाजिक उन्नयन । गाँधी शिक्षा का तत्त्वज्ञान गाँधीजी ने शिक्षा-सम्बधी जो अपने विचार व्यक्त किये हैं, उनके सम्बन्ध में विश्व का ध्यान अभी आवश्यकता से कम ही आकर्षित हो पाया है । इसके मुख्य कारणों में राजनीति तथा समाज-सुधार के क्षेत्र में उनकी सिध्दि और सत्य-अहिंसा के अद्भुत प्रयोग प्रमुख हैं । फलस्वरूप एक विशिष्ट शिक्षाकार के रूप में गाँधीजी की महत्ता कम हो गई है । पर उनकी शिक्षा-प्रणाली को देखते हुए यह ज्ञात होता है कि वे पूर्व के आधुनिक शिक्षाशास्त्र एवं कला के आदि प्रवर्तक हैं । इतना ही नहीं, बल्कि देखा जाय तो उनकी 'वर्धा' शिक्षा योजना में ही गाँधीजी की शिक्षा का तत्त्वज्ञान समाविष्ट नहीं हो पाया है । उनका तत्त्वज्ञान संकुचित धार्मिक या जातिगत् चेतना से अनुप्रमाण्ति नहीं, बल्कि उनका तत्त्वज्ञान तो विश्व में मनुष्य के हृदय में क्रांति जगाने का अवसर देख रहा है । गाँधीजी एक व्यवहारज्ञ व्यक्ति थे । अन्यें की तरह उन्होंने भी अपने तत्त्वज्ञान को आचार-व्यवहार में अनुकरण करने के योग्य बनाया । शिक्षा के संदर्भ में अपने विचार व्यक्त करते हुए उन्होंने कहा है- 'शिक्षा अर्थात् बालक अथवा मनुष्य के शरीर, मन और आत्मा में जो उत्तम अंश हो, उसका सर्वांगीण विकास कर उसे प्रस्तुत करना है। वैसे ही उसका प्रारंभ भी नहीं है। वह तो स्त्राr-पुरुष को स़िर्फ शिक्षा देने वाले साधनों में से एक है ।" शिक्षा का उद्देश मनुष्य को एक अच्छा नागरिक बनाना है । इसीलिए गाँधीजी कहते थे कि एक निरक्षर भोला-भाला ग्वाला एक साक्षर की अपेक्षा अच्छा नागरिक भी हो सकता है । उनकी दृष्टि में तत्त्वज्ञान में विद्यार्थी का व्यक्तित्व प्रमुख है। गाँधीजी कहते थे- "सच्ची शिक्षा तो वह कहलाती है, जो बच्चों की आध्यात्मिक बौध्दिक एवं शारीरिक शक्ति को उजागर करती है । इनमें से यदि कुछ भी छूट जाता है तो शिक्षा के मूलभूत सिध्दान्तों का द्रोह करना है ।" गाँधी शिक्षा के तत्त्वज्ञान का मूल अपने मूल विचारों को स्पष्ट करते हुए गांधीजी स्वयं लिखते हैं- "बच्चे की शिक्षा का आरंभ कुछ उपयोगी हस्तोद्योग-सम्बन्धी कार्य-प्रणाली को सिखकर करना चाहिए । मेरे मतानुसार इस शिक्षा-प्रणाली में मन और आत्मा का उच्चतम विकास आवश्यक है । अपने तत्त्वज्ञान को स्पष्ट करते हुए वे कहते हैं कि लड़का-लड़की के पुरुषत्व एवं स्त्रीत्व का विकास उद्योग द्वारा होना चाहिए । इसीलिए शिक्षा उद्योग और शारीरिक प्रवृत्ति को लेकर चलनी चाहिए । इसीलिए शिक्षा उद्योग और शारीरिक प्रवृत्ति को लेकर चलनी चाहिऐ । गाँधीजी की इस विचारधारा से प्रभावित होकर आर्थर मार्टिनाने अमेरिका के कॉलेज-पाठयक्रम में एक सप्ताह अध्ययन के साथ खेत-खलिहान में कार्य करने का आदेश दिया था । उनके मतानुसार यदि नई शिक्षा को लक्ष्य में रखकर शिक्षा-शिक्षण की पुन रचना हो तो लोगों और शिक्षा के बीच कोई अन्तर नहीं रह पाएगा । अर्थात् शिक्षा में शारीरिक श्रम की महत्ता पर बल दिया चाहिए । स्वाश्रय 'स्वाश्रय' गांधी जी की शिक्षा के तत्त्वज्ञान का दूसरा गुण है; लक्ष्य भी । उन्होंने इसकी विस्तृत व्याख्या करते हुए बताया । (अ) शिक्षा स्वयं स्वावलंबी होनी चाहिए, जो व्यक्ति के समग्र जीवन में तथा जीवन के अंतिम समय तक स्वयं में पूर्ण बनाए । (ब) शिक्षा स्वयं स्वावलंबी होनी चाहिए । गाँधीजी के मतानुसार ऐसी शिक्षा जिस किसी को मिली हो, उसे बेकारी के सामने एक प्रकार से लॉटरी लगने जैसा हो जाएगा । उनको विश्वास था कि प्रत्येक पाठशाला को स्वाश्रयी, स्वावलंबी बनाया जा सकता है । किन्तु इसी तरह की पाठशाला में तैयार होनेवाली प्रत्येक वस्तु की खरीदारी राज्य करे । वस्तुत यही उसकी यर्थार्थता की परख है । गाँधीजी के स्वाश्रय का यह ख्याल उनके अहिंसा के सिध्दान्त तक ले जाता है । उनके मन में शिक्षा और हिंसा के बीच मूलभूत विरोध है । क्योकि सच्ची शिक्षा अहिंसा द्वारा ही दी जाती है । भय और शिक्षा के द्वारा कुछ भी थोपा नहीं जान चाहिए। साथ ही शिक्षा के पीछे खर्च किसी शोषित प्रक्रिया का शिकार नहीं होना चाहिए । इन मूलभूत बातों के साथ गाँधीजी की शिक्षा के तात्त्विक चिंतन में कुछ ऐसी बातें भी हैं । जैसे- (1) राष्ट्रीय स्तर पर सात-आठ वर्षो तक म़ुप्त एवं अनिवार्य शिक्षा दी जानी चाहिए । (2) मातृभाषा शिक्षा का माध्यम होनी चाहिए। यदि अंगेजी शिक्षा के बिना विकास संभव नहीं है तो बालिग लोग ही अंग्रेजी शिक्षा ग्रहण करें । (3) शिक्षा की योजना में प्राथमिक-माध्यमिक कक्षा सम्मिलित होनी चाहिए । (4) बच्चों द्वारा निर्मित च़ीजों को राज्य द्वारा खरीदा जाए । गाँधीजी के इस तत्त्वज्ञान से पठन, लेखन और गणित सीखने के बदले 'हाथ, हृदय और मन बनाओ' जैसे सूत्र का प्रचलन हुआ । अर्थात् गाँधीजी ने केवल पुस्तकीय ज्ञान पर ही बल नहीं दिया, बल्कि शारीरिक श्रम और स्वस्थ मन पर विशेष बल दिया । गाँधीजी की शिक्षा का उद्देश्य गाँधीजी ने अन्य शिक्षाविदों की भाँति 'रोजी-रोटी कमाओं' के सूत्र को कभी नहीं स्वीकार किया । वे तो शिक्षा को विविध पहलुओं के संदर्भ में देखना चाहते थे। मुख्य रूप से उन्होंने शिक्षा के दो पहलुओं पर बल दिया । त्वरित उद्देश्य एवं अंतिम उद्देश्य त्वरित उद्देश्य के अन्तर्गत उद्योगों के बारे में श्री मशरूवाला ने लिखा है - उद्योग सिर्फ शिक्षा का साधन या वाहन नहीं है । किन्तु जितना मानव-जीवन के लिए अनिवार्य है, उतनी ही शिक्षा साध्य है । सेगाव पध्दति का ध्येय यह है कि प्रत्येक बच्चे को छोटी उम्र में ही यह निश्चय करना चाहिए कि उसे जीवन में किस शिक्षा से व्यवसाय में जान है ।'' गाँधीजी के मतानुसार अक्षरज्ञान की अपेक्षा संस्कार अधिक महत्त्वपूर्ण है । फिर भी सुन्दर अक्षर विद्या का आवश्यक अंग है और असुन्दर लेख अपूर्ण शिक्षा की निशानी है। इसके लिए ललित कला अति आवश्यक है । अपनी आत्मकथा-'सत्य ना प्रयोगो' में गाँधीजी ने ऐसी बातों का स्पष्ट उल्लेख किया है । इन सारी अवधारणाओं के साथ-साथ वे चरित्र के विकास की महत्ता को बताते हुए लिखते हैं कि `शिक्षा का सेतु, चारित्र्य की नींव पर नहीं हो तो वह न के बराबर है ।' गाँधीजी के मतानुसार जीवन के शुध्दि-हेतु संगीत शिक्षा एक अनिवार्य, आवश्यक शर्त हो सकती है । उनकी दृष्टि में सदाचार और उच्च जीवन का विशेष महत्त्व है । इसे वे चारित्र्य का विशेष अंग मानते थे । कोलम्बो कॉलेज के छात्रों को संबोधित करते हुए उन्होंने कहा था । "आपकी शिक्षा का प्रारंभ सत्य और शुध्दता की नींव पर न हुआ तो वह व्यर्थ है ।'' चरित्र-निर्माण के अतिरिक्त उन्होंने 'सा विद्या या विमुक्तये' को भी शिक्षा का एक महत्त्वपूर्ण उद्देश बताया था । मुक्ति और विद्या का व्यापक अर्थ स्पष्ट करते हुए गाँधीजी ने कहा है- "विद्या अर्थात् लोकापयोगी सर्वज्ञान और मुक्ति अर्थात् इस जीवन के सर्व दासत्व में से छूट जाना ।'' ऐसे ही राजकीय स्वातंत्र्य और अक्षर-ज्ञान या अध्यात्मिक-ज्ञान के अर्थ के संदर्भ में उन्होंने दूरगामी उद्देश्य प्रस्थापित किया है। गाँधीजी की शिक्षा का अंतिम और सबसे महत्त्वपूर्ण उद्देश्य आत्म-साक्षात्कार करानेवाला, जीवात्मा को परमात्मा के साथ एकरूप करानेवाला ईश्वर-ज्ञान है । निष्कर्ष शिक्षण-जगत् के एक तत्त्वचिंतक के रूप में गाँधीजी की सबसे बड़ी विशिष्टता यह है कि उन्होंने दुनिया के अन्य शिक्षाविदों या तत्त्वचिंतकों की भाँति शिक्षा के किसी एक ही उद्देश्य को प्रस्तुत कर आत्म-परितोष का अनुभव नहीं किया, बल्कि मानव-जीवन के सभी पहलुओं को स्पर्श करते हुए अनेक उद्देश्यों को हमारे समक्ष प्रस्तुत किया, जिसे सिध्द करने के लिए हमें सदा प्रयत्नशील रहना चाहिए । वे एक ऐसे सर्वग्राही उद्देश्य में विश्वास रखते थे, जिसमें सबका समावेश किया जा सके । उन्होंने एक ऐसी शिक्षा की बात की, जो अति सामान्य मानव तक पहुँच सके और उस शिक्षा के द्वारा उसके हृदय, हाथ तथा मस्तिष्क का परिष्कार और परिमार्जन किया जा सके । भारत के मित्र महान अर्थशास्त्री डॉ. गुन्नार मिर्डल ने कहा है – “गाँधीजी द्वारा प्रस्तुती की गयी नई तालीम के प्रयोग सिर्फ़ भारत के लिए नहीं है, बल्कि समग्र दक्षिण आशिया को उन्हें अपनाना चाहिए, अपनाना पड़ेगा। उसके बिना इन देशों का विकास गतिशील नहीं होगा ।” आज युनेस्को समेत अनेक अंतरराष्ट्रीय संस्थाएँ गाँधीजी के विचारों को प्रचलित कर शिक्षा-प्रणाली में परिवर्तन करने के लिए प्रयत्नशील हैं । आज के मानव ने विज्ञान की उपलब्धियों के माध्यम से बहुत कुछ दुर्लभ, अलभ्य चीजें भी प्राप्त कर ली हैं और आज वह प्रकृति को चुनौती देने में सक्षम प्रतीत होता है, फिर भी गाँधी विचारधारा की लहर समग्र विश्व में लहराती हुई दिखाई दे रही है । क्योंकि गाँधीजी ने शिक्षा-सम्बधी जो संकल्पना प्रस्तुत की है, वह नये विश्व-समाज की रचना के साथ ज़ुडी है । एक ऐसा समाज, जिसमें मानवीय मंगल का व्यवहार हो । गाँधीजी की यह संकल्पना समग्र मानवजाति को क्रमशः उन्नयन की ओर ले जायेगी । उनकी शिक्षा का अंतिम उद्देश्य हमारी प्रजा, हमारे लोगों की प्रकृति को अनुकूल विश्व की प्रजा के लिए आदर्श एवं सांस्कृतिक विरासत के साथ कुछ ऐसा प्रदान करना है, जो सभी युगपुरुषों तथा महान् तत्वचिंतको को स्वीकार्य हो तथा सभी उससे संपूर्णतया सहमत हों । आज यह सांप्रत विश्व की माँग है । परन्तु हमारे लिए तो यह एक आवश्यकता है । अतः मैं स्पष्ट रूप से स्वीकार करती हूँ कि गाँधी शिक्षा आधुनिक संदर्भ में भारत की ही नहीं, बल्कि पूरे विश्व की अनिवार्य आवश्यकता बनती जा रही है । संपर्कः गुरूकुल महिला कॉलेज, पोरबंदर |