| 
	 
	
	1. न संत, न 
	पापी  | 
| 
	 
	
	मैं सोचता हूं कि वर्तमान जीवन से 
	'संत' शब्द निकाल दिया जाना चाहिए। यह 
	इतना पवित्र शब्द है कि इसे यूं ही किसी के साथ जोड़ देना उचित नहीं है। मेरे 
	जैसे आदमी के साथ तो और भी नहीं, जो बस एक साधारण-सा 
	सत्यशोधक होने का दावा करता है, 
	जिसे अपनी सीमाओं और अपनी त्रुटियों का अहसास है और 
	जब-जब उससे त्रुटियां  हो जाती है,
	तब-तब बिना हिचक उन्हें स्वीकार कर लेता है और जो निस्संकोच इस 
	बात को मानता है कि वह किसी वैज्ञानिक की भांति, जीवन 
	की कुछ 'शाश्वत सच्चाइयों' के 
	बारे में प्रयोग कर रहा है, किंतु वैज्ञानिक होने का 
	दावा भी वह नहीं कर सकता, क्योंकि अपनी पद्धतियों की 
	वैज्ञानिक यथार्थता का उसके पास कोई प्रत्यक्ष प्रमाण नहीं है और न ही वह अपने 
	प्रयोगों के ऐसे प्रत्यक्ष परिणाम दिखा सकता है जैसे कि आधुनिक विज्ञान को 
	चाहिए। 
	
	
	यंग,
	12-5-1920,
	पृ. 
	
	2 
	 
	
	
	मुझे संत कहना यदि संभव भी हो तो अभी उसका समय बहुत दूर है। मैं किसी भी रूप या 
	आकार में अपने आपको संत अनुभव नहीं करता। लेकिन अनजाने में हुई भूलचूकों के 
	बावजूद मैं अपने आपको सत्य का पक्षधर अवश्य अनुभव करता हूं।  | 
| 
 
सत्य 
की नीति 
मैं 
'संत के वेश में राजनेता' नहीं हूं। लेकिन 
चूंकि सर्वोच्च बुद्धिमला है इसलिए कभी-कभी मेरे कार्य किसी शीर्षस्थ राजनेता के-से 
कार्य प्रतीत होते है। मैं समझता हूं कि सत्य और अहिंसा की नीति के अलावा मेरी कोई 
और नीति नहीं है। मैं अपने देश या अपने धर्म तक के उद्धार के लिए सत्य और अहिंसा की 
बलि नहीं दूंगा। वैसे, इनकी बलि देकर देश या धर्म का उद्धार 
किया भी नहीं जा सकता। 
यंग, 
20-1-1927,
पृ. 
21 
 
मैं अपने जीवन में न कोई अंतर्विरोध पाता हूं,
न कोई पागलपन। यह सही है कि जिस तरह आदमी अपनी पीठ नहीं देख सकता,
उसी तरह उसे अपनी त्रुटियां या अपना पागलपन भी दिखाई नहीं देता। 
लेकिन मनीषियों ने धार्मिक व्यक्ति को प्रायः पागल जैसा ही माना है। इसलिए मैं इस 
विश्वास को गले लगाए हूं कि मैं पागल नहीं हूं बल्कि सच्चे अर्थों में धार्मिक हूं। 
मैं वस्तुतः इन दोनों में से क्या हूं, इसका निर्णय मेरी 
मृत्यु के बाद ही हो सकेगा। 
यंग, 
14-8-1924,
पृ. 
267 
 
मुझे लगता है कि मैं अहिंसा की अपेक्षा सत्य के आदर्श को ज्यादा अच्छी तरह समझता 
हूं और मेरा अनुभव मुझे बताता है कि अगर मैंने सत्य पर अपनी पकड़ ढीली कर दी तो मैं 
अहिंसा की पहेली को कभी नहीं सुलझा पाउंगा.... दूसरे शब्दों में,
सीधे ही अहिंसा का मार्ग अपनाने का साहस शायद मुझमें नहीं है। सत्य 
और अहिंसा तत्वतः एक ही हैं और संदेह अनिवार्यतः आस्था की कमी या कमजोरी का ही 
परिणाम होता है। इसीलिए तो मैं रात-दिन यही प्रार्थना करता हूं कि 'प्रभु,
मुझे आस्था दें'। 
ए, पृ. 
336 
 
मेरा मानना है कि मैं बचपन से ही सत्य का पक्षधर रहा हूं। यह मेरे लिए बड़ा 
स्वाभाविक था। मेरी प्रार्थनामय खोज ने 
'ईश्वर सत्य है' के सामान्य सूत्र के स्थान 
पर मुझे एक प्रकाशमान सूत्र दिया : 'सत्य ही ईश्वर है'। 
यह सूत्र एक तरह से मुझे 
 ईश्वर के रू-ब-रू खड़ा कर देता है। मैं अपनी सला के कण-कण 
में ईश्वर को व्याप्त अनुभव करता हूं। 
हरि, 
9-8-1942,
पृ. 
264  | 
| 
	 
	
	सच्चाई में विश्वास 
	
	
	मैं आशावादी हूं,
	इसलिए नहीं कि मैं इस बात का कोई सबूत दे सकता हूं कि सच्चाई 
	ही फलेगी बल्कि इसलिए कि मेरा इस बात में अदम्य विश्वास है कि अंततः सच्चाई ही 
	फलती है.... हमारी प्रेरणा केवल हमारे इसी विश्वास से पैदा हो सकती है कि अंततः 
	सच्चाई की ही जीत होगी।  
	
	
	हरि, 
	
	10-12-1938,
	पृ. 
	
	372 
 
	
	
	मै किसी-न-किसी तरह मनुष्य के सर्वोत्कृष्ट गुणों को उभार कर उनका उपयोग करने 
	में कामयाब हो जाता हूं,
	और इससे ईश्वर तथा मानव प्रछति में मेरा विश्वास दृढ़ रहता है
	। 
	
	
	हरि, 
	
	15-4-1939,
	पृ. 
	
	86  | 
| 
	 
	
	संन्यासी नहीं 
	
	
	मैंने कभी अपने आपको संन्यासी नहीं कहा। संन्यास बड़ी कठिन चीज है। मैं तो 
	स्वयं को एक गृहस्थ मानता हूं जो अपने सहकर्मियों के साथ मिलकर,
	मित्रों की दानशीलता पर जीवन निर्वाह करते हुए,
	सेवा का विनम्र जीवन जी रहा है... मैं जो जीवन जी रहा हूं वह 
	पूर्णतया सुगम और बड़ा सुखकर है, यदि सुगमता और सुख को 
	मनःस्थिति मान लें तो। मुझे जो कुछ चाहिए, वह सब उपलब्ध 
	है और मुझे व्यक्तिगत पूंजी के रूप में कुछ भी संजोकर रखने की कतई जरूरत नहीं 
	है। 
	
	
	यंग, 
	
	1-10-1925,
	पृ. 
	
	338 
 
	
	
	मेरी लंगोटी मेरे जीवन का सहज विकास है। यह अपने आप आ गई,
	न मैंने इसके लिए कोई प्रयास किया, न 
	पहले से सोचा। 
	
	
	यंग, 
	
	9-7-1931,
	पृ. 
	
	175 
 
	
	मैं 
	विशेषाधिकार और एकाधिकार से घृणा करता हूं। जिसमें जनसाधारण सहभागी न हो सके,
	वह मेरे लिए त्याज्य है। 
	
	
	हरि, 
	2-11-1934,
	पृ. 303 
 
	
	
	मुझे संन्यासी कहना गलत है। मेरा जीवन जिन आदर्शों से संचालित है,
	वे आम आदमियों द्वारा अपनाए जा सकते हैं। मैंने उन्हें 
	धीरे-धीरे विकसित किया है। हर कदम अच्छी तरह सोच-विचार कर और पूरी सावधानी 
	बरतते हुए उठाया गया है। 
	
	
	मेरा इंद्रिय-निग्रह और अहिंसा,
	दोनों मेरे व्यक्तिगत अनुभव की उपज हैं,
	जनसेवा के हित में इन्हें अपनाना आवश्यक था। दक्षिण अफ्रीका 
	में गृहस्थ, वकील, समाज-सुधारक 
	या राजनीतिज्ञ के रूप में जो अलग-थलग जीवन मुझे बिताना पड़ा,
	उसमें अपने कर्तव्यों के सम्यक निर्वाह के लिए यह आवश्यक था कि 
	मैं अपने जीवन के यौन पक्ष पर कठोर नियंत्रण रखूं, और 
	मानवीय संबंधों में, वे चाहे अपने देशवासियों के साथ 
	हों अथवा यूरोपियनों के साथ, अहिंसा और सत्य का दृढ़ता 
	से पालन करूं। 
	
	
	हरि, 
	
	3-10-1936,
	पृ. 
	
	268 
 
	
	
	अनवरत काम के बीच मेरा जीवन आनंद से परिपूर्ण रहता है। मेरा कल कैसा होगा,
	इसकी कोई चिंता न करने के कारण मैं स्वयं को पक्षी के समान 
	मुक्त अनुभव करता हूं.... मैं भौतिक शरीर की जरूरतों के खिलाफ निरंतर ईमानदारी 
	के साथ संघर्षरत हूं, यही विचार मुझे जीवित रखता है।
	 
	
	
	यंग, 
	
	1-10-1925,
	पृ. 
	
	338 
 
	
	
 बिना आस्था के काम करना ऐसा ही है जैसा कि बिना पेंदे के गर्त का पेंदा ढूंढना।
	 
	
	
	हरि, 
	3-10-1936,
	पृ. 
	268
	-69  | 
| 
	 
	
	अहंकार का त्याग 
	
	
	मैं जानता हूं कि मुझे अभी बड़ा मुश्किल रास्ता तय करना है। मुझे अपनी हस्ती को 
	बिलकुल मिटा देना होगा। जब तक मनुष्य अपने आपको स्वेच्छा से अपने सहचरों में 
	सबसे अंतिम स्थान पर खड़ा न कर दे तब तक उसकी मुक्ति संभव नहीं। अहिंसा 
	विनम्रता की चरम सीमा है। 
	
	
	ए, पृ. 
	
	371 
 
यदि हम 
धर्म,
राजनीति, अर्थशात्र आदि से 'मैं'
और 'मेरा' निकाल 
सकें तो हम शीदz ही स्वतंत्र हो जाएंगे,
और पृथ्वी पर स्वर्ग उतार सकेंगे । 
	
यंग, 
3-9-1926,
पृ. 336 
 
	
	
	समुद्र की एक बूंद भी 
	समुद्र की विशालता का एक हिस्सा होती है,
	यद्यपि उसे इसका भान नहीं होता। लेकिन 
	समुद्र से छिटककर गिरते ही 
	वह सूख जाती है। हम कोई अतिशयोक्ति नहीं करते जब यह कहते हैं कि जीवन मात्र एक 
	बुलबुला है। 
	
	
	सत्यशोधक के लिए अहंकारी होना संभव नहीं है। जो दूसरों के लिए अपने जीवन का 
	बलिदान करने को तत्पर हो,
	उसके पास इस संसार में अपने लिए स्थान सुरक्षित करने का समय 
	कहां? 
	
	
	यंग, 
	
	16-10-1930,
	पृ. 
	
	2 
 
	
	
	व्यक्ति की क्षमता की सीमाएं हैं,
	और जैसे ही वह यह समझने लगता है कि वह सब कुछ करने में समर्थ 
	है, ईश्वर उसके गर्व को चूर कर देता है। जहां तक मेरा 
	प्रश्न है, मुझे स्वभाव में इतनी विनम्रता मिली है कि 
	मैं बच्चों और अनुभवहीनों से भी मदद लेने के लिए तैयार रहता हूं। 
	 
	
	
	यंग, 
	
	12-3-1931,
	पृ. 
	
	32 
 
	
	
	मेरे छत्यों का निर्णय मेरा भाग्य करता है। मैं कभी उन्हें खोजने नहीं जाता। वे 
	अपने आप मेरे पास आ जाते हैं। मेरे संपूर्ण 
	
 जीवन का-दक्षिण अफ्रीका में और भारत 
	लौटकर आने के बाद से अब तक-व्म यही रहा है। 
	
	
	यंग,
	7-5-1925,
	पृ. 
	
	163  | 
| 
	 
	अल्प पुस्तकीय ज्ञान 
	
	
	मैं अपनी सीमाओं को स्वीकार करता हूं। मैंने कोई उल्लेखनीय विश्वविद्यालयी 
	शिक्षा प्राप्त नहीं की। हाई स्कूल तक मैं कभी औसत से ।पर का छात्र नहीं रहा। 
	मैं परीक्षा में पास हो जाता था तो शुव्गुजार होता था। स्कूली परीक्षाओं में 
	विशेष योग्यता प्राप्त करने की तो मैं कल्पना भी नहीं कर सकता था। 
	
	 हरि,
	
	9-7-1938,
	पृ. 
	176 
 
	
	
	अपनी पढ़ाई के दिनों में मैंने पाठय्पुस्तकों के अलावा शायद ही कुछ पढ़ा हो और 
	सव्यि जीवन में प्रवेश के बाद मुझे स्वाध्याय के लिए प्रायः कम ही समय मिला। 
	इसलिए मैं विशेष पुस्तकीय ज्ञान का कोई दावा नहीं कर सकता। बहरहाल,
	मेरे इस विवशताजन्य संयम से कोई विशेष हानि हुई नहीं दिखती। 
	इससे उलट, हुआ यह है कि कम किताबें पढ़ने के कारण 
	मुझमें यह योग्यता आई कि जो पढूं, उसे भीतर भली भांति 
	गुनूं-मनन करूं । 
	
	इन 
	पढ़ी हुई पुस्तकों में से जिस एक पुस्तक ने मेरे जीवन में तत्काल और व्यावहारिक 
	रूपांतरण कर डाला,
	वह थी 'अनटू दिस लास्ट'। 
	बाद में, मैंने गुजराती में इसका अनुवाद किया जिसका 
	शीर्षक रखा 'सर्वोदय' 1सब का 
	कल्याण1। मेरा विश्वास है कि रस्किन की इस महान पुस्तक 
	में मुझे अपनी ही गहरी आंतरिक निष्ठाएं प्रतिबिंबित होती दिखाई दीं और यही कारण 
	है कि इसने मुझे विमुग्ध करके मेरे जीवन का रूपांतरण कर डाला
	। 
	
	
	ए, पृ. 
	220 
 
	
	
	तब मैं दक्षिण अफ्रीका में रह रहा था। मैंने 
	'अन टू दिस लास्ट',
	पैंतीस वर्ष की अवस्था में 
	
	1904
	में, डर्बन जाते समय रेल में पढ़ी। इसे 
	पढ़कर मैंने अपने संपूर्ण बाहरी जीवन को बदल डालने का निर्णय ले लिया। मैं बस 
	यही कह सकता हूं कि रस्किन के शब्दों ने मुझे विमुग्ध कर दिया। मैं एक साथ पूरी 
	पुस्तक पढ़ गया और उसके बाद रात भर सो नहीं सका। मैंने तत्काल अपने संपूर्ण 
	जीवनव्म को बदल देने का फैसला कर लिया। टाल्सटाय मैं बहुत पहले पढ़ चुका था। 
	उसने मेरे 
	
 अंतर्मन को प्रभावित किया था। 
	
	
	इंके, पृ. 
	245  | 
| 
 
गरीबों की सेवा 
हृदय को सच्ची और शुद्ध कामना अवश्य पूरी होती है। अपने अनुभव में,
मैंने इस कथन को सदा सही पाया हैं। गरीबों की सेवा मेरी हार्दिक 
कामना रही है और इसने मुझे सदा गरीबों के बीच ला खड़ा किया है और मुझे उनके साथ 
तादात्म्य स्थापित करने का अवसर दिया है। 
ए, पृ. 
110 
 
मैंने जीवन भर निर्धनों से सदा प्रेम किया है और भरपूर मात्रा में किया है। मैं 
अपने विगत जीवन के अनेक उदाहरण देकर यह स्पष्ट कर सकता हूं कि मेरा यह प्रेम मेरे 
स्वभाव का अंग था। मुझे गरीबों के और अपने बीच कोई फर्क महसूस नहीं हुआ। मुझे वे 
सदा अपने सगे-संबंधी ही लगे हैं
। 
हरि,
11-5-1935,
पृ. 
99 
 
मुझे संसार के नाशवान साम्राज्य की कोई कामना नहीं है। मैं तो स्वर्ग के साम्राज्य 
के लिए प्रयासरत हूं,
जोकि 'मोक्ष' है। 
मुझे इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए गुफा में जाकर वास करने की आवश्यकता नहीं है। 
आवश्यकता होती तो मैं ऐसा ही करता। 
गुफा में वास करने वाला आदमी हवाई किले बना सकता है जबकि महल में रहने वाले जनक 
जैसे व्यक्ति को किले बनाने की कोई आवश्यकता नहीं। विचारों के पंखों पर बैठकर संसार 
में विचरण करनेवाले गुफावासी का शांति नहीं मिलती। इसके विपरीत,
राजसी ठाठबाट में रहते हुए भी जनक विवेकपूर्ण शांति का अनुभव कर 
सके। 
मेरे लिए अपने देश और उसके द्वारा समूची मानवता की अथक सेवा ही मोक्ष का मार्ग है। 
मैं समस्त प्राणी-जगत के साथ तादात्म्य स्थापित करना चाहता हूं। 
यंग, 
3-4-1924,
पृ. 
114 
 
मेरा 
जीवन एक अविभाज्य समष्टि है,
और मेरे सभी कार्यकलाप परस्पर गुंफित है; 
ये सभी कार्यकलाप मानवता के प्रति मेरे असीम प्रेम से उद्भूत हैं। 
 
रि, 
2-3-1934,
पृ. 24 
 
मुझे जीवन भर गलत समझा जाता रहा। हर एक जनसेवक की यही नियति है। उसकी खाल बड़ी 
मजबूत होनी चाहिए। अगर अपने बारे में कही गई हर गलत बात की सफाई देनी पड़े और 
उन्हें दूर करना पड़े तो जीवन भार हो जाए। मैंने अपने जीवन का यह नियम बना लिया है 
कि अपने बारे में किए गए गलत निरूपणों या मिथ्या प्रचारों पर स्पष्टीकरण न देता 
फिरूं सिवाय तब के जबकि उनको सुधारे जाने की जरूरत लगे। इस नियम के पालन से मेरी कई 
चिंताएं मिटीं और बहुत-सा समय बचा। 
यंग,
27-5-1926,
पृ. 
193 
 
मुझे लोग सनकी,
झक्की और पागल बताते हैं। मैं इस ख्याति के सर्वथा योग्य भी दिखता 
हूं। कारण कि मैं जहां भी जाता 
 हूं, मेरे पास सनकी,
झक्की और पागल लोग आ जुटते हैं। 
यंग, 
13-6-1929,
पृ. 
193  | 
| 
 
व्यावहारिक स्वप्नद्रष्टा 
मैं ईश्वर के,
और इसीलिए मानवता के, परम एकत्व में 
विश्वास करता हूं। यदि हमारे शरीर अलग-अलग हैं तो क्या हुआ? 
आत्मा तो एक है। सूर्य की किरणें अपवर्तन के कारण अनेक हो जाती हैं पर उनका त्रोत 
तो एक ही है। इसलिए मैं बड़ी-से-बड़ी दुष्टात्मा से भी अपने को विलग नहीं कर सकता न ही मुझे बड़ी-से-बड़ी पवित्रात्मा के साथ तादात्म्य से वंचित 
किया जाना चाहिए। और इसीलिए मैं चाहे जो करूं,
मुझे संपूर्ण मानवता को अपने प्रयोग में भागीदार बनाना चाहिए। मैं 
प्रयोग करना भी नहीं छोड़ सकता। जीवन प्रयोगों की एक अनंत श्रृंखला ही तो है।
 
यंग, 
25-9-1924,
पृ. 
313 
 
मुझे मेरे संपूर्ण दोषों के साथ ही स्वीकार किया जाना चाहिए। मैं एक सत्यशोधक हूं। 
मेरे लिए मेरे प्रयोग सर्वोलम तैयारी वाले हिमालय अभियानों से भी अधिक महत्वपूर्ण 
हैं
। 
यंग, 
3-12-1925,
पृ. 
422 
 
यह मेरा दुर्भाग्य अथवा सौभाग्य रहा है कि मैं दुनिया को हैरत में डाल देता हूं। 
नये प्रयोगों,
या नये तरीके से किए गए पुराने प्रयोगों से कभी-कभी भ्रांत धारणा 
उत्पन्न हो ही जाती है । 
एफ्, पृ. 
132 
 
वस्तुतः मैं एक व्यावहारिक स्वप्नद्रष्टा हूं। मेरे स्वप्न हवाई नहीं हैं। मैं अपने 
स्वप्नों को जहां तक संभव हो,
यथार्थ में परिवर्तित करना चाहता हूं।  
हरि, 
17-11-1933,
पृ. 
6 
 
यदि मेरे द्वारा पवित्र माना गया मेरा कोई कार्य अव्यावहारिक सिद्ध हो जाए तो उसे 
असफल घोषित कर दिया जाना 
 चाहिए। मेरा पक्का विश्वास है कि सर्वाधिक आध्यात्मिक कर्म 
सच्चे अर्थों में सर्वाधिक व्यावहारिक होता है। 
हरि,
1-7-1939,
पृ. 
181  | 
| 
 
मेरी चूकें 
मैं स्वयं को एक साधारण व्यक्ति मानता हूं जिससे अन्य मनुष्यों की ही तरह गलतियां 
हो सकती हैं। हां,
मेरे अंदर इतनी विनम्रता जरूर है कि मैं अपनी गलतियों को स्वीकार 
कर सकूं और उनका सुधार कर सकूं। मैं यह भी मानता हूं कि ईश्वर और उसकी दयालुता में 
मेरा अविचल विश्वास है। साथ ही, मेरा सत्य और प्रेम में 
असीम अनुराग है। लेकिन, यह भावना क्या प्रत्येक मनुष्य के 
भीतर अंतर्निहित नहीं है?  
यंग, 
6-5-1926,
पृ. 
164 
 
जिन्होंने सरसरी तौर पर भी मेरे साधारण जीवन-व्म पर 
दृष्टिपात किया है, उनके ध्यान में यह बात 
अवश्य आई होगी कि मैंने जीवन में एक भी काम किसी व्यक्ति या राष्टं को चोट पहुंचाने 
के लिए नहीं किया है.... मैं यह दावा नहीं करता कि मुझमें कोई खामियां नहीं हैं। 
मैं जानता हूं कि मैंने भयंकर भूलें की हैं, लेकिन मैंने वे 
जान-बूझकर नहीं कीं और न ही मैंने किसी व्यक्ति अथवा राष्टं या किसी मानव अथवा 
अवमानव के प्रति अपने मन में कभी किसी तरह का शत्रु-भाव पाला है। 
 
एफ्,ा पृ. 
133 
 
मैंने अपने अनेक पापों को बिलकुल स्पष्ट रूप से स्वीकार किया है। लेकिन मैं इन 
पापों की गठरी को अपने कंधों पर लादकर नहीं चलता। यदि मैं ईश्वर की ओर अग्रसर हूं,
जैसा कि मैं अनुभव करता हूं, तो मैं 
सुरक्षित हूं। कारण, कि मैं ईश्वर की उपस्थिति की उष्मा का 
अनुभव करता हूं। 
मुझे पता है कि मेरी सादगी,
मेरे उपवास और मेरी प्रार्थनाएं-तब कोई मूल्य नहीं रखेंगी जब मैं 
अपने को सुधारने के लिए उन्हीं पर आश्रित हो जाउंगा। लेकिन यदि वे आत्मा की इस ललक का 
प्रतिनिधित्व करती हैं कि अपने सिरजनहार की गोद में अपने श्रांत सिर को रखकर आराम 
और ताजगी पाई जाए, और मेरा मानना है कि वे इसी का 
प्रतिनिधित्व करती हैं, 
 तो फिर उनका मूल्य अपरिमेय है
। 
हरि, 
18-4-1936,
पृ. 
77  | 
| 
	 
	सभी से नातेदारी 
	
	जब 
	भी मैं किसी दोषी व्यक्ति को देखता हूं तो मैं अपने आप से कहता हूं की मैंने भी 
	गलतियां की हैं;
	जब मैं किसी कामुक व्यक्ति को देखता हूं तो अपने आप से कहता 
	हूं की मैं भी कभी ऐसा ही था; और इस प्रकार दुनिया के 
	प्रत्येक व्यक्ति के साथ मैं अपनी नातेदारी, अपनी 
	बंधुता अनुभव करता हूं और यह अनुभव करता हूं कि जब तक हम में से सर्वाधिक दीन 
	व्यक्ति सुखी नहीं होगा, मैं भी सुखी नहीं हो सकता।
	 
	
	
	यंग, 
	10-2-1927,
	पृ. 44 
 
	
	
	यदि मैं किसी को उसके प्राप्तव्य से कम दूं तो मुझे अपने प्रभु और सिरजनहार के 
	सामने जवाब देना होगा,
	लेकिन मुझे पक्का विश्वास है कि यदि वह यह देखता है कि मैंने 
	किसी को उसके प्राप्तव्य से अधिक दिया है तो वह मुझे आशीर्वाद अवश्य देगा
	। 
	
	
	यंग, 
	
	10-3-1927,
	पृ. 
	
	80 
 
	
	
	मैं किसी व्यक्ति विशेष से नाराज नहीं होता,
	क्योंकि मुझे इस बात का अच्छी तरह अहसास है कि मेरी जाति के 
	प्राणी अर्थात मानव कितने अपूर्ण हैं। मैं जहां भी कोई बुराई देखता हूं तो उसे 
	दूर करने का प्रयास करता हूं; उसके लिए दोषी व्यक्ति को 
	चोट पहुंचाने की कोशिश नहीं करता, चूंकि मैं भी तो यह 
	नहीं चाहूंगा कि मुझसे निरंतर होनेवाली गलतियों के लिए कोई मुझे चोट पहुंचाए। 
	
	
	यंग, 
	
	12-3-1930,
	पृ. 
	
	89-90 
 
	
	
	मैं सच्चे हृदय से यह बात कह सकता हूं कि मैं अपने साथियों के दोष ढूंढने में 
	बड़ा शिथिल हूं और चूंकि स्वयं मेरे भीतर इतने सारे दोष हैं इसलिए मुझे इन 
	साथियों की उदारता की जरूरत है। लोगों के बारे में बहुत कड़े मानदंडों के आधार 
	पर 
	
 निर्णय न करना और उनकी भूलों को देखकर भी उदार रहना मैंने सीख लिया है। 
	
	
	हरि,
	11-3-1939,
	पृ. 
	
	47  | 
| 
	 
	विरोधियों का सम्मान 
	
	
	दृष्टिकोणों की भिन्नता का अर्थ परस्पर युद्ध की स्थिति में 
	होना नहीं है। यदि ऐसा हो तो मैं और मेरी पत्नी एक-दूसरे के घोर शत्रु बन जाएं। 
	मैं किन्हीं ऐसे दो व्यक्तियों को नहीं जानता जिनमें कोई मतभेद न हों और चूंकि 
	मैं गीता का भक्त हूं, मैंने सदा यह प्रयास किया है कि 
	जिनका मुझसे मतभेद है, उनसे भी अपने स्वजनों और 
	प्रियजनों जैसा ही प्रेमपूर्ण व्यवहार करूं। 
	
	
	यंग, 
	
	17-3-1927,
	पृ. 
	
	82 
	
		
		 
	 
	
	
	मुझे सदा यह देखकर संतोष का अनुभव हुआ है कि मैं जिनके सिद्धांतों और नीतियों 
	का विरोध करता हूं,
	वे भी प्रायः मेरे प्रति अपना प्रेम और विश्वास यथावत बनाए 
	रखते हैं। दक्षिण अफ्रीकियों ने भी व्यक्तिगत स्तर पर मुझे अपना विश्वास और 
	मित्रता दी। 
	
	
	ब्रिटिश नीति और प्रणाली की भर्त्सना करने के बावजूद मुझे हजारों अंग्रेज 
	स्त्री-पुरुषों का स्नेह प्राप्त है और आधुनिक भौतिकवादी सभ्यता की पूरी तरह 
	निंदा करने पर भी मेरे यूरोपीय और अमरीकी मित्रों की संख्या बढ़ती ही जाती है 
	यह भी अहिंसा की ही विजय है। 
	
	
	वही, पृ. 
	
	86 
	
		
		 
	 
	
	
	मैं जान-बूझकर किसी प्राणी को चोट नहीं पहुंचा सकता और साथी मानवों को तो और भी 
	नहीं,
	भले ही वह मेरे साथ कितनी ही बुराई से पेश आएं। 
	
	
	यंग, 
	
	12-3-1930,
	पृ. 
	
	93 
	
		
		 
	 
	
	
	मेरे द्वारा पिछले 
	50
	वर्षों में किए गए किसी एक भी काम के बारे में कोई व्यक्ति यह 
	सिद्ध नहीं कर सकता कि वह किसी आदमी या समुदाय के विरोध में किया गया था। मैंने 
	कभी किसी को अपना शत्रु नहीं माना। मेरा धर्म मुझे किसी को भी 
	
	
 अपना शत्रु मानने 
	की आज्ञा नहीं देता। मैं किसी प्राणी के प्रति दुर्भावना नहीं रख सकता। 
	 
	
	
	हरि, 
	
	17-11-1933,
	पृ. 
	
	4  | 
| 
	 
	
	2.
	मेरा महात्मापन  | 
| 
 
महात्मा नहीं 
मुझे नहीं लगता कि मैं महात्मा हूं। लेकिन मैं यह अवश्य जानता हूं कि मैं ईश्वर के 
सर्वाधिक दीन-विनीत प्राणियों में से एक हूं। 
यंग,
27-10-1921,
पृ. 
342 
	
	
  
इस महात्मा की पदवी ने मुझे बड़ा कष्ट पहुंचाया है,
और मुझे एक क्षण भी ऐसा याद नहीं जब इसने मुझे गुदगुदाया हो। 
ए, पृ. गपअ 
 
	
	
  
मेरी महात्मा की पदवी व्यर्थ है। यह मेरे बाहय़ कार्यकलाप के कारण है,
मेरी राजनीति के कारण है जो मेरा लघुतम पक्ष है और इसलिए,
क्षणजीवी भी है। मेरा वास्तविक पक्ष है सत्य,
अहिंसा और ब्रंचर्य के प्रति मेरा आग्रह, 
और इसी का महत्व स्थायी है। यह पक्ष चाहे जितना छोटा हो पर इसकी उपेक्षा नहीं करनी 
है। यही मेरा सर्वस्व है। मुझे मेरी असफलताएं और मोहभंग भी प्यारे हैं,
चूंकि ये भी तो सफलता की सीढ़ियां हैं। 
यंग, 
25-2-1926,
पृ. 
78-79 
	
	
  
दुनिया बहुत कम जानती है कि मेरी तथाकथित महानता किस कदर मेरे मूक,
निष्ठावान, योग्य और शुद्ध 
कार्यकर्ताओं-त्री एवं पुरुषों के अनवरत कठोर परिश्रम पर और नीरस कामों में भी उनकी 
लगन पर आश्रित है। 
यंग, 
26-4-1928,
पृ. 
130 
	
	
  
मेरे लिए सत्य 
'महात्मापन' से कहीं अधिक प्रिय है। 
'महात्मापन' तो मेरे ।पर सिर्फ एक बोझ है। 
यह अपनी सीमाओं और 
 अकिंचनता का बोध ही है जिसने मुझे 'महात्मापन'
के अत्याचारी स्वरूप से बचाये रखा है। 
यंग, 
1-11-1928,
पृ. 
361
  | 
| 
	 
	स्तुति-अभिनंदन से परेशान 
	
	
	मैं अविवेकी लोगों द्वारा की जाने वाली आराधना-स्तुति से सचमुच परेशान हो गया 
	हूं। इसके स्थान पर यदि वे मेरे ।पर थूकते तो मुझे अपनी असलियत का सही अंदाजा 
	रहता। और तब मुझे अपनी भयंकर भूलों और अन्य मिथ्यानुमानों को स्वीकार करने,
	अपने कदम पीछे हटाने या कार्यकलापों का पुनर्विन्यास करने की 
	आवश्यकता न पड़ती। 
	
	
	यंग, 
	
	2-3-1922,
	पृ. 
	
	135
	 
	
		
		 
	 
	
	
	मुझे भेंट किए गए अभिनंदन-पत्रों में से अधिकांश में मेरे लिए ऐसे-ऐसे विशेषणों 
	का प्रयोग किया जाता है जिनके मैं कदापि योग्य नहीं हूं। इनसे न इनके लेखकों का 
	कुछ भला होता है,
	न मेरा। इनके कारण मुझे अकारण शर्मिंदा होना पड़ता है,
	क्योंकि मुझे यह स्वीकार करना पड़ता है कि मैं इन विशेषणों के 
	योग्य नहीं हूं। जो विशेषण उपयुक्त भी हैं, उनका अतिशय 
	प्रयोग कर दिया जाता है। ऐसे अभिनंदनों से मेरे गुणों की शक्ति बढ़ने में कोई 
	मदद नहीं मिलती। बल्कि यदि मैं सावधान न रहूं तो उनसे मेरा सिर फिर सकता है। 
	अच्छा तो यही है कि आदमी के सुछत्यों की भी बहुत चर्चा न की जाए। सबसे उपयुक्त 
	प्रशंसा तो उनका अनुकरण ही है। 
	
	
	यंग, 
	
	21-5-1925,
	पृ. 
	
	176
	 
	
		
		 
	 
	
	
	मुझे इस महात्मा की पदवी को अपने हाल पर छोड़ देना चाहिए। यद्यपि मैं एक 
	असहयोगी हूं,
	पर यदि कोई ऐसा विधेयक लाया जाए जिसके अनुसार मुझे महात्मा 
	कहना और मेरे पांव छूना अपराध घोषित किया जा सके तो मैं खुशी-खुशी उसका समर्थन 
	करूंगा। जहां मैं अपना कानून चलाने की स्थिति में हूं, 
	जैसे कि अपने आश्रम में, वहां ऐसा करने पर 
	
 एकदम पाबंदी 
	है। 
	
	
	यंग, 
	
	17-3-1927,
	पृ. 
	
	86  | 
| 
	 
	सच्चा सम्मान 
	
	
	मेरे मित्र मेरा सर्वाधिक सम्मान मेरे कार्यव्मों को अपने जीवन में लागू करके 
	या यदि वे इनमें विश्वास न करते हों तो उनका भरपूर विरोध करके कर सकते हैं। 
	
	
	यंग,
	12-6-1924,
	पृ. 
	
	197
	 
	
		
		 
	 
	
	यह तो अच्छे 
	धन का अपव्यय होगा.... किसी आदमी की मिट्टी या धातु की प्रतिमा खड़ी करना-आदमी 
	जो खुद मिट्टी का बना है और उस कांच की चूड़ी से भी अधिक भंगुर है जिसे आप 
	परिरक्षण के द्वारा हजार वर्ष तक रख सकते है; 
	मानव शरीर तो नित्य विघटित होता है और आयुष्य पूरा होने पर अंतिम रूप से विघटित 
	हो जाता है। अपने मुसलमान मित्रों से, जिनके बीच मैंने अपने जीवन के सर्वोलम 
	वर्ष व्यतीत किए हैं, मैंने अपने रूपाकार की प्रतिमाओं और चित्रों को नापसंद 
	करना सीखा है।..... 
	
	यह 
	पंक्तियां उन लोगों के लिए चेतावनी बनें जो मेरी प्रतिमाएं खड़ी करके अथवा 
	मेरी आछति के चित्र लगाकर मेरा सम्मान करना चाहतें हैं-वे समझ लें कि मुझे इन 
	प्रदर्शनों से हार्दिक अरुचि है। जिन्हें मुझमें आस्था है, वे यदि मेरे प्रिय 
	
 कार्यकलाप को आगे बढ़ाने की छपा करेंगे तो मैं समझूंगा कि मेरा पर्याप्त सम्मान 
	हुआ है। 
	
	
	हरि , 
	11-2-1939,
	पृ. 1  | 
| 
	 
	
	मैं 'अवतार' नहीं 
	
	
	अपने को श्रीकृष्ण बताया जाना मैं प्रभु-निंदा मानता हूं। मैं तो एक अदना-सा 
	कार्यकर्ता हूं और एक महान कार्य में लगे अनेक लोगों में से एक हूं। इस कार्य 
	के नेताओं का प्रशस्ति-गान करने से इसे लाभ पहुंचने के बजाय हानि ही पहुंचेगी। 
	किसी कार्य की सफलता की सर्वाधिक संभावना तब होती है जब उसके गुण-दोषों की 
	समीक्षा की जाए और उनके आधार पर ही उसका अनुगमन किया जाए। प्रगतिशील समाज में,
	मनुष्यों से अधिक महत्व लक्ष्यों को दिया जाना चाहिए क्योंकि 
	मनुष्य अंततः उन लक्ष्यों की पूर्ति के लिए प्रयासरत अपूर्ण साधन मात्र हैं। 
	
	
	यंग, 
	
	13-7-1921,
	पृ. 
	
	224 
	
		
		 
	 
	
	
	मैं केवल जिस एक गुण का दावा करना चाहता हूं,
	वह है सत्य तथा अहिंसा। मेरा किन्हीं अतिमानवीय शक्तियों का 
	दावा नहीं है, न ही मुझे उनकी कामना है। मैं उसी नश्वर 
	हाड़-मांस का बना हूं जिसके मेरे दुर्बलतम साथी बने हैं,
	इसलिए आम इंसान की तरह मैं गलतियां कर सकता हूं। मेरी सेवाओं 
	की अनेक सीमाएं हैं, लेकिन ईश्वर ने मेरी अपूर्णताओं के 
	बावजूद अभी तक मेरी सेवाओं पर अपना वरदहस्त रखा है। 
	
	
	यंग, 
	
	16-2-1922,
	पृ. 
	
	102 
	
		
		 
	 
	
	
	मैं अपने भीतर किसी अनन्य दैवी शक्ति का कोई दावा नहीं करतां। मैं पैगम्बरी का 
	दावा नहीं करता। मैं तो एक विनम्र सत्यशोधक हूं और सत्य की ही प्राप्ति के लिए 
	छतसंकल्प हूं। ईश्वर के साक्षात्कार के लिए मैं कितने भी बड़े त्याग को अधिक 
	नहीं मानता। मेरे समस्त कार्यकलाप,
	चाहे उन्हें सामाजिक कहा जाए या राजनीतिक,
	मानवीय अथवा नैतिक, उसी लक्ष्य की 
	प्राप्ति की ओर अभिमुख हैं। 
	
	
	और चूंकि मैं जानता हूं कि ईश्वर का वास उच्च और शक्ति-संपन्नों की अपेक्षा 
	प्रायः अपने अतिसाधारण-निचले प्राणियों के बीच अधिक है,
	इसलिए मैं इन्हीं के स्तर पर आने के लिए संघर्षरत हूं। यह मैं 
	उनकी सेवा किए बगैर नहीं कर सकता। इसलिए मुझे दलित वर्गों की सेवा की लालसा 
	रहती है। और चूंकि मैं राजनीति में प्रवेश किए बगैर यह सेवा नहीं कर सकता इसलिए 
	मैं राजनीति में हूं। इस प्रकार मैं कोई स्वामी नहीं हूं। मैं तो भारत और उसके 
	जरिए मानवता का एक संघर्षरत, भूल-चूक करने वाला और 
	विनम्र सेवक हूं।  
	
	
	यंग, 
	
	11-6-1924,
	पृ. 
	
	298 
	
		
		 
	 
	
	
	यह देखकर अचंभा होता है कि हम किस तरह अपने को छलते हैं। हम यह भ्रम पाल लेते 
	हैं कि इस भंगुर शरीर को अपराजेय बनाया जा सकता है और आत्मा की प्रच्छन्न 
	शक्तियों को जाग्रत करना असंभव मान बैठते हैं। यदि मेरे पास उनमें से कोई 
	शक्तियां हैं भी,
	तो मैं यही दिखाने की कोशिश कर रहा हूं कि मैं किसी भी साधारण 
	मनुष्य जैसा ही कमजोर हूं और मुझमें कोई असाधारणता न पहले कभी थी और न अब है।
	 
	
	
	यंग, 
	
	6-5-1926,
	पृ. 
	
	164 
	
		
		 
	 
	
	
	मैं स्वयं को इस योग्य नहीं मानता कि मेरी गिनती पैगंबरों में की जाए। मैं एक 
	विनम्र सत्यशोधक हूं। मैं इसी जन्म में आत्म-साक्षात्कार करने,
	मोक्ष प्राप्त करने के लिए आतुर हूं। देश-सेवा मेरे लिए अपनी 
	आत्मा को इस देह के बंधन से मुक्त करने की साधना का ही एक अंग है। इस अर्थ में 
	इस सेवा को मेरा शुद्ध स्वार्थ भी माना जा सकता है। मुझे संसार के नश्वर 
	साम्राज्य की कोई कामना नहीं है। मैं तो स्वर्ग के साम्राज्य अर्थात मोक्ष के 
	लिए प्रयासरत हूं। 
	
	
	यंग, 
	
	3-4-1924,
	पृ. 
	
	114 
	
		
		 
	 
	
	
	औसत से भी कम योग्यता वाले एक साधारण मानव से अधिक कुछ होने का मेरा दावा नहीं 
	है। परिश्रमपूर्ण अनुसंधान के जरिए जो कुछ अहिंसा या आत्मसंयम मैं अर्जित कर 
	सका हूं,
	उसके लिए मुझमें कोई विशेष योग्यता पहले से रही है,
	इसका दावा मैं नहीं करता। मुझे इसमें तनिक भी संदेह नहीं है कि 
	कोई भी त्री अथवा पुरुष वह सब उपलब्ध कर सकता है, जो 
	मैंने किया; यदि वह इतनी ही आशा और विश्वास के साथ इतना 
	ही प्रयास करे। 
	
	
	हरि , 
	
	3-10-1936,
	पृ. 
	
	269 
	
		
		 
	 
	
	
	मुझे पत्र लिखने वाले कुछ लोग यह समझते हैं कि मैं चमत्कार कर सकता हूं। सत्य 
	का पुजारी होने के नाते मैं यह कहना चाहूंगा कि मेरे पास ऐसा कोई सामर्थ्य नहीं 
	है। मेरे पास जो भी शक्ति है,
	वह सब ईश्वर की दी हुई है। लेकिन ईश्वर 
	
 प्रत्यक्ष कार्य करते 
	नहीं दिखते। वे अपने असंख्य अभिकरणों के द्वारा काम करते हैं। 
	 
	
	
	हरि, 
	
	8-10-1938,
	पृ. 
	
	285  | 
| 
	 
	सीमाओं की सजगता 
	
	
	मैं स्वयं को एक दूरदर्शी कार्यकर्ता मानता हूं। मेरी दूरदर्शिता का अर्थ यह और 
	केवल यह है कि मुझे अपनी सीमाओं का सम्यक ज्ञान है। मुझे उम्मीद है कि मैं कभी 
	अपनी सीमाओं को नहीं लांघता। निश्चित रूप से,
	मैंने कभी जान-बूझकर ऐसा नहीं किया है। 
	
	
	यंग, 
	
	23-6-1920,
	पृ. 
	
	3 
	
		
		 
	 
	
	
	अपनी सीमाओं के प्रति मैं सजग हूं। यह सजगता ही मेरी एकमात्र शक्ति है। मैं 
	अपने जीवन में जो कुछ कर पाया हूं,
	वह किसी अन्य बात की अपेक्षा अपनी सीमाओं को पहचानने की मेरी 
	क्षमता के कारण ही है।  
	
	
	यंग, 
	
	13-11-1924,
	पृ. 
	
	378 
	
		
		 
	 
	
	
	यदि मैं वह होता जो मैं चाहता हूं तो उपवास की आवश्यकता ही न पड़ती। मुझे तब 
	किसी से बहस करने की भी जरूरत न होती। मेरा शब्द ही काम कर जाता। सच पूछा जाए 
	तो मुझे बोलने की भी आवश्यकता न पड़ती। मेरी इच्छा मात्र ही अभीष्ट परिणाम 
	प्राप्त करा देती। लेकिन मुझे अपनी सीमाओं का ज्ञान है
	
	
	। 
	
	
	हरि 
	, 15-4-1939,
	पृ. 
	
	86 
	
		
		 
	 
	
	
	लोग जब-जब गम्भीर भूलें करेंगे,
	मैं उन्हें भूलों के रूप में स्वीकार करता जाउंगा 
	। मैं दुनिया 
	में एक ही निरंकुश शक्ति को मानता हूं और वह है मेरे अंतःकरण की हल्की-सी आवाज। 
	और यद्यपि इस बात की संभावना है कि मैं अपने मार्ग पर चलने के लिए अकेला रह 
	जाउंगा पर मुझे विश्वास है कि मुझमें इतने विकट अल्पमत में रहने का साहस है। 
	
	
	यंग, 
	
	2-3-1922,
	पृ. 
	
	135 
	
		
		 
	 
	
	
	मेरा मानना है कि मैं मानव प्रछति का काफी अच्छा पारखी और अपनी असफलताओं का 
	शल्य-चिकित्सक हूं। मैंने पाया है कि मनुष्य अपने द्वारा प्रतिपादित पद्धति से 
	श्रेष्ठतर है। 
	
	
	मगां, पृ. 
	
	241 
	
		
		 
	 
	
	
	मुझे उम्मीद है कि मुझमें दर्प-भाव नहीं है। मुझे लगता है कि मैं अपनी कमजोरी 
	पूरी तरह पहचानता हूं। पर भगवान और उसकी शक्ति तथा प्रेम में मेरी आस्था अडिग 
	है। मैं तो अपने कुंभकार के हाथों में मिट्टी के एक लोंदे के समान हूं। 
	
	
	यंग,
	26-1-1922,
	पृ. 
	
	49 
	
		
		 
	 
	
	
	मुझे कहीं प्रतिष्ठा मिले,
	इसकी मुझे कोई कामना नहीं है। प्रतिष्ठा तो राजाओं के दरबार की 
	सजावट है। मैं जिस प्रकार हिंदुओं का सेवक हूं उसी प्रकार मुसलमानों,
	ईसाइयों, पारसियों और यहूदियों का भी 
	हूं। और, सेवक को तो प्यार चाहिए,
	
	
 प्रतिष्ठा नहीं। जब तक मैं एक निष्ठावान सेवक बना रहूंगा,
	प्यार मुझे अवश्य मिलेगा। 
	
	
	यंग, 
	
	26-3-1925,
	पृ. 
	
	112  | 
| 
 
शहादत की तैयारी 
कुछ बातें ऐसी हैं जिनसे आप तत्काल मुक्त नहीं हो सकते,
भूले ही आप उसके लिए प्रयास करते रहें। मेरा यह पार्थिव देहावरण 
जिसमें मैं बंदी हूं, मेरे जीवन का भार है पर मुझे इसे वहन 
करना ही होगा, बल्कि इसे प्रसन्न भी रखना होगा। 
यंग, 
27-10-1921,
पृ. 
342 
	
	
  
मैं इस कथन की सत्यता में पूरा-पूरा विश्वास करता हूं कि ईश्वर की मर्जी के बगैर 
पला भी नहीं हिल सकता। यदि वह मेरे शरीर से और सेवा लेना चाहेगा तो इसकी रक्षा 
करेगा। उसकी मर्जी के बिना इसे कोई नहीं बचा सकता। 
एफा,
पृ. 
114 
	
	
  
मेरी रक्षा के लिए कोई प्रयास न कीजिए। सर्वशक्तिमान सदैव हम सब की रक्षा करता है। 
आप पक्के तौर पर समझ लें कि जब मेरा समय पूरा हो जाएगा तो दुनिया का बड़े-से-बड़ा 
आदमी भी ईश्वर के और मेरे बीच बाधा नहीं बन सकेगा। 
यंग,
2-4-1931,
पृ. 
54-55 
	
	
  
मुझे अपने सिरजनहार के प्रति सच्चा बने रहना चाहिए और जिस क्षण मुझे लगे कि अब यह 
शरीर मैं नहीं चला पा रहा,
मैं समझता हूं कि मुझे इसका मोह त्याग देना चाहिए। इससे बेहतर 
प्रतिकार मैं और क्या कर सकता हूं कि जब यह शरीर काम देना बंद कर दे और सन्मार्ग की 
खोज में बाधक बनने लगे तो इसे स्वेच्छा से समर्पित कर दूं। 
वही, पृ. 
60 
	
	
  
मैं शहादत के लिए आतुर नहीं हूं। लेकिन अपनी आस्था की रक्षा को मैं सर्वोच्च 
कर्तव्य मानता हूं और उसे निभाते हुए यदि शहादत मिले.... तो मैं समझूंगा कि मैं 
इसके योग्य था।  
हरि , 
29-6-1934,
पृ. 
156 
	
	
  
लोगों से मिले असीम स्नेह की मैं कं करता हूं लेकिन उन्हें यह समझ लेना चाहिए कि 
मेरी रक्षा की चिंता करने से यदि राष्टं अपने प्रमुख ध्येय से विचलित होता है तो यह 
शरीर रक्षा के योग्य नहीं है। 
हरि 
, 11-3-1939,
पृ. 
44 
	
	
  
अतीत में मेरी जान लेने की कई कोशिशें की गई हैं,
पर अभी तक ईश्वर ने मेरी रक्षा की है और हमलावरों ने अपने छत्य पर 
पछतावा जाहिर किया है। लेकिन अगर कोई यह समझते हुए मुझ पर गोली चलाए कि वह एक दुष्ट 
से छुटकारा पा रहा है तो वह सच्चे गांधी को नहीं बल्कि उसी को मारेगा जो उसे दुष्ट 
दिखाई देता था। 
बांव, 
9-8-1942, 
	
	
  
केवल भगवान ही मेरा रक्षक है। कोई अदना आदमी जो खुद नहीं जानता कि कल उसका क्या 
होगा,
वह किसी दूसरे की रक्षा का जिम्मा कैसे ले सकता है। मैं भगवान के 
आश्रय में संतुष्ट हूं। वह रक्षा करे या नाश। मैं जानता हूं कि कभी-कभी रक्षा के 
लिए वह नाश भी करता है। 
हरि , 
9-6-1946,
पृ. 
170 
	
	
  
मैं अपनी कार्यशक्तियों के वमिक ऱहास के फलस्वरूप...। एक पराजित मनुष्य की भांति 
मरना नहीं चाहता। किसी हत्यारे की गोली मेरी जान ले ले,
मैं इसे बेहतर समझूंगा। अपनी अंतिम श्वास तक मैं अपना कर्तव्य 
करते-करते मरूं, यह मुझे सबसे प्रिय होगा। 
 
मंगाला , प् ,
पृ. 
562 
	
	
  
 अपनें ध्येय की पूर्ति करते हुए मर जाने से मैं नहीं डरता। यदि मेरे भाग्य में यही 
है तो ऐसा ही हो।  
हरि 
, 27-4-1947,
पृ. 
127  | 
| 
	 
	
	वेध का परिहार 
	
	
	मैंने कटु अनुभव के द्वारा अपने वेध को परिरक्षित करने का उलम पाठ पढ़ लिया है;
	जिस प्रकार उष्मा को परिरक्षित करके ।र्जा में बदला जाता है 
	उसी प्रकार वेध को नियंत्रित करके एक ऐसी शक्ति में रूपांतरित किया जा सकता है 
	जो सारी दुनिया को हिला सकती है। 
	
	
	यंग, 
	15-9-1920,
	पृ. 
	6 
	
		
		 
	 
	
	
	गौरवपूर्ण आचरण से दूर जाने वाले व्यक्ति को मैं बख्शता नहीं-फिर वह दोस्त हो 
	या दुश्मन। 
	
	
	यंग, 
	2-3-1922,
	पृ. 
	140 
	
		
		 
	 
	
	
	ऐसी बात नहीं है कि मुझे वेध नहीं आता। पर मैं वेध को व्यक्त नहीं करता। मैं 
	वेधहीनता के रूप में धैर्य के गुण का विकास करता हूं और प्रायः इसमें सफलता पा 
	लेता हूं। जब वेध आता है तो मैं केवल उसका नियंत्रण करता हूं। मैं उसे कैसे 
	नियंत्रित कर पाता हूं,
	यह पूछना बेकार है; यह एक आदत है जो 
	हरेक व्यक्ति को डालनी चाहिए और निरंतर अभ्यास से इसमें सफलता अवश्य प्राप्त कर 
	लेनी चाहिए। 
	
	
	हरि , 
	
	11-5-1935,
	पृ. 
	98 
	
		
		 
	 
	
	
	यदि मुझमें विनोद-वृलि न होती तो बहुत पहले आत्महत्या कर चुका होता। 
	
	
	यंग, 
	18-8-1921,
	पृ. 
	238 
	
		
		 
	 
	
	
	मैं अदम्य आशावादी हूं,
	क्योंकि मुझे स्वयं पर विश्वास है। यह बड़ी दंभपूर्ण उक्ति 
	लगती है, है न? लेकिन मैं यह 
	बात अत्यंत विनम्रतापूर्वक कह रहा हूं। मुझे ईश्वर की सर्वशक्तिमला में विश्वास 
	है। मुझे सत्य में विश्वास है और इसीलिए मुझे इस देश और मानवता के भविष्य के 
	बारे में कोई संदेह नहीं हैं। 
	
	
	मैं आशावादी हूं,
	क्योंकि मैं अपने आप से बहुत-सी बातों की उम्मीद करता हूं। 
	मुझे मालूम है कि वे सारी बातें मुझमें नहीं हैं, 
	क्योंकि मैं अभी एक पूर्ण प्राणी नहीं हूं। यदि मैं पूर्ण प्राणी होता तो मुझे 
	तुमसे बहस करने की जरूरत न होती। जब मैं पूर्णता प्राप्त कर लूंगा तो मुझे 
	सिर्फ मुंह खोलने की जरूरत होगी और पूरा राष्टं मेरी बात सुनेगा। मैं सेवा को 
	द्वारा ऐसी पूर्णता प्राप्त करना चाहता हूं। 
	
	
	यंग, 
	
	13-8-1925,
	पृ. 
	279-80 
	
	 
	
	
	मेरा दर्शन, यदि कोई है तो,
	यह नहीं मानता कि किसी के ध्येय को बाहरी तत्वों से कोई हानि 
	पहुंच सकती है। हानि तभी पहुंचती है, और पहुंचनी उचित 
	भी हैं, जब ध्येय अशुद्ध हो, या 
	ध्येय तो शुद्ध हो पर उसके समर्थक झूठे, दुर्बलहृदय
	
	
 अथवा 
	मलिन हों। 
	
	
	हरि, 
	25-7-1936,
	पृ. 185  | 
| 
	 
	
	
	3.
	जानता हूं मार्ग मैं  | 
| 
	 
	
	मैं मार्ग जानता हूं। वह सीधा और संकरा है। वह तलवार की धार की तरह है। मुझे उस 
	पर चलने में आनंद आता है। जब मैं उससे फिसल जाता हूं तो रोता हूं। ईश्वर का वचन 
	है जो प्रयास करता है,
	वह कभी नष्ट नहीं होता। मुझे इस वचन में पूरी आस्था है। इसलिए 
	अपनी कमजोरी की वजह से मैं चाहे हजार बार नाकामयाब रहूं पर मेरी आस्था कभी नहीं 
	डिगेगी। बल्कि यह आशा कायम रहेगी कि जिस दिन यह शरीर पूरी तरह नियंत्रण में आ 
	जाएगा, उस दिन मुझे ईश्वर की अलौकिक आभा के दर्शन हो 
	जाएंगे। और ऐसा होगा जरूर। 
	
	
	यंग, 
	17-6-1926,
	पृ. 
	215 
	
		
		 
	 
	
	
	मेरी आत्मा जब तक एक भी अन्याय अथवा एक भी विपलि की विवश साक्षी है तब तक वह 
	संतोष का अनुभव नहीं कर सकती। लेकिन मेरे जैसे दुर्बल,
	भंगुर और दीन व्यक्ति के लिए हर दोष को दूर करना या जो भी दोष 
	मैं देखता हूं उस सबसे स्वयं को मुक्त मानना सम्भव नहीं है। 
	
	
	मेरी अंतश्चेतना मुझे एक दिशा में ले जाती है और शरीर विपरीत दिशा की ओर जाना 
	चाहता है। इन दोनों विरोधी दलों के कार्यों से मुक्ति पाई जा सकती है,
	पर वह मुक्ति कई धीमे और पीड़ाप्रद चरणों से गुजरते हुए ही 
	प्राप्य है। 
	
	मैं 
	यह मुक्ति कर्म का यंत्रवत् त्याग करके नहीं पा सकता-यह तो अनासक्त भाव से 
	प्रबुद्ध कर्म करके ही पाई जा सकती है। 
	
 इस 
	संघर्ष में देह को निरंतर तपाना पड़ता है,
	तब जाकर अंतश्चेतना पूरी तरह स्वतंत्र हो पाती है। 
	
	
	यंग, 
	17-11-1921,
	पृ. 368  | 
| 
 
सत्य की खोज 
मैं मात्र एक सत्यशोधक हूं। मेरा मानना है कि मैंने सत्य तक पहुंचने का मार्ग ढूंढ 
लिया है। मैं उसे पाने का निरंतर प्रयास कर रहा हूं। लेकिन मैं स्वीकार करता हूं कि 
मैं अभी तक अपने ध्येय में सफल नहीं हो सका हूं। सत्य को पूर्ण रूप से पाना अपना और 
अपनी नियति का पूरी तरह साक्षात्कार करना अर्थात पूर्ण हो जाना है। मुझे अपनी 
अपूर्णताओं का पीड़ादायक बोध है,
और इसी बोध में मेरी समस्त शक्ति सन्निहित है,
क्योंकि यह बड़ी दुर्लभ बात है कि आदमी को अपनी सीमाओं का बोध हो 
जाए। 
यदि मैं पूर्ण मनुष्य होता तो मुझे अपने पड़ोसियों के दुख देखकर वैसा महसूस न होता 
जैसा कि होता है। पूर्ण मनुष्य के रूप में मैं उनके दुखों को देखकर उन्हें दूर करने 
के उपाय बता देता और अपने भीतर के अजेय सत्य के बल पर उन्हें अपनाने के लिए लोगों 
को बाध्य कर देता। पर अभी तो मैं मानो एक धूमिल शीशे के जरिए ही पाता हूं और इसलिए 
धीरे-धीरे तथा कष्टकर प्रव्या द्वारा विश्वास जगा पाता हूं और तब भी सदा सफल नहीं 
होता। 
ऐसी स्थिति में,
यदि मैं अपने चहुं ओर व्याप्त परिहार्य दुख की जानकारी होते हुए भी 
और विश्व के नियंता की छाया तले, कंकालशेषों को देखकर भी 
भारत के करोडों मूक दीन-दुखियों के साथ सहानुभूति का 
अनुभव न करूं तो मैं मनुष्य से अधम जीव होउंगा। 
वही, , पृ. 
377  | 
| 
 
भगवान पर भरोसा 
मैं इस संसार में 
'परिव्याप्त अंधकार के बीच से' निकलकर आलोक 
तक पहुंचने का प्रयास कर रहा हूं। मुझसे अक्सर गलतियां हो जाती हैं या मिथ्या 
अनुमान लगा बैठता हूं.... मेरा भरोसा केवल भगवान में है। और,
मैं इंसानों का भी भरोसा इसलिए करता हूं कि मुझे भगवान में भरोसा 
है। यदि मुझे भगवान में भरोसा न होता तो मैं टाइमन की तरह अपनी मानव-प्रजाति से 
घृणा करनेवाला होता।  
यंग, 
4-12-1924,
पृ. 
398 
	
	
  
मैं सारी दुनिया को प्रसन्न करने के लिए भगवान से विश्वासघात नहीं करूंगा। 
हरि, 
18-2-1933,
पृ. 
4 
	
	
  
मैंने अपने जीवन में जो भी उल्लेखनीय कार्य किया है,
तर्कबुद्धि से प्रेरित होकर नहीं किया अपितु अपनी सहजवृलि,
बल्कि कहूं कि भगवान से प्रेरित होकर किया है।  
हरि, 
14-5-1938,
पृ. 
110 
	
	
  
मैं आस्थावान व्यक्ति हूं। मुझे केवल भगवान का आसरा है। मेरे लिए एक ही कदम 
पर्याप्त है। अगला कदम,
समय आने 
 पर 
भगवान स्वयं मुझे सुझा देगा। 
हरि, 
20-10-1940,
पृ. 
330  | 
| 
 
कोई गोपनीयता नहीं 
मेरी कोई गोपनीय विधियां नहीं हैं। सत्य के अलावा और कोई कूटनीति मैं नहीं जानता। 
अहिंसा के अलावा मेरे पास और कोई हथियार नहीं है। मैं अनजाने में कुछ समय के लिए 
भले ही भटक जाउंगा लेकिन सदा के लिए नहीं भटक सकता। 
यंग,
11-12-1924,
पृ. 
406 
	
	
  
मेरा जीवन एक खुली किताब रहा है। मेरे न कोई रहस्य हैं और न मैं रहस्यों को प्रश्रय 
देता हूं।  
यंग,
19-3-1931,
पृ. 
43 
	
	
  
मैं पूरी तरह भला बनने के लिए संघर्षरत एक अदना-सा इंसान हूं। मैं मन,
वाणी और कर्म से पूरी तरह सच्चा और पूरी तरह अहिंसक बनने के लिए 
संघर्षरत हूं- यह लक्ष्य सच्चा है, यह मैं जानता हूं पर उसे 
पाने में बार-बार असफल हो जाता हूं। मैं मानता हूं कि इस लक्ष्य तक पहुंचना कष्टकर 
है, पर यह कष्ट मुझे निश्चित आनंद देने वाला लगता है। इस तक 
पहुंचने की प्रत्येक सीढ़ी मुझे अगली सीढ़ी तक पहुंचने के लिए और शक्ति तथा 
सामर्थ्य देती है। 
यंग, 
9-4-1924,
पृ. 
126 
	
	
  
जब मैं एक और अपनी लघुता और अपनी सीमाओं के बारे में सोचता हूं और दूसरी ओर मुझसे 
लोगों को जो अपेक्षाएं हो गई हैं,
उनकी बात सोचता हूं तो एक क्षण के लिए तो मैं स्तब्ध रह जाता हूं 
लेकिन फिर यह समझकर प्रछतिस्थ हो जाता हूं कि ये अपेक्षाएं मुझसे नहीं हैं,
जोकि अच्छे और बुरे का एक अजीब-सा मिश्रण है,
बल्कि सत्य और अहिंसा के दो अमूल्य गुणों के मुझमें अवतरण के प्रति 
हैं- यह अवतरण कितना ही अपूर्ण हो पर मुझमें अपेक्षाछत अधिक द्रष्टव्य है। इसलिए 
पश्चिम के अपने सह-शोधकों की मुझसे जो कुछ सहायता बन पड़े, 
उसकी जिम्मेदारी से मुझे विमुख नहीं होना चाहिए। 
यंग, 
3-10-1925,
पृ. 
344  | 
| 
 
मार्गदर्शन 
मैं अचूक मार्गदर्शन अथवा प्रेरणा प्राप्त होने का दावा नहीं करता। जहां तक मेरा 
अनुभव है,
किसी भी मनुष्य के लिए अचूकता का दावा करना अनुचित है,
क्योंकि प्रेरणा भी उसी को मिलती है जो विरोधी तत्वों की व्या से 
मुक्त हो, और किसी अवसर विशेष के संबंध में यह निर्णय करना 
मुश्किल होगा कि विरोधी युग्मों से मुक्ति का दावा सही है या नहीं। इसलिए अचूकता का 
दावा करना बड़ा खतरनाक है। लेकिन इसका तात्पर्य यह नहीं कि हमें कोई मार्गदर्शन 
उपलब्ध ही नहीं है। विश्व के मनीषियों का समग्र अनुभव हमें उपलब्ध है और सदा उपलब्ध 
रहेगा। 
इसके अलावा, 
मौलिक सत्य अनेक नहीं हैं बल्कि एक ही है, जो सत्य स्वयं है जिसे अहिंसा भी कहा 
जाता है। सीमा में बंधा मनुष्य सत्य और प्रेम के संपूर्ण स्वरूप को, जो अनंत है, 
कभी नहीं पहचान पाएगा। लेकिन जितना हमारे मार्गदर्शन के लिए आवश्यक है उतना तो हम 
जानते ही हैं। हम उस पर आचरण करते समय त्रुटि कर सकते हैं और कभी-कभी त्रुटि भयंकर 
भी हो सकती है। लेकिन मनुष्य एक ऐसा प्राणी है जो अपने को नियंत्रित कर सकता है और 
नियंत्रण की इस शक्ति में जिस प्रकार त्रुटि करने की शक्ति समाहित है, उसी प्रकार 
त्रुटि का पता चलने पर उसका सुधार 
करने की शक्ति 
 भी 
है। 
यंग, 
21-4-1927,
पृ. 
128 
	
	
  
मैं दिव्यद्रष्टा नहीं हूं। मैं संत होने के दावे सभी इंकार करता हूं। मैं तो 
पार्थिव शरीरधारी हूं 
- मैं भी आपकी तरह अनेक दुर्बलताओं का शिकार हो सकता हूं। 
लेकिन मैंने दुनिया 
देखी 
है। मैं आंखे खोलकर जिया हूं। मनुष्य को जिन-जिन अग्निपरीक्षाओं से होकर गुजरना पड़ 
सकता है,
उनमें से अधिकांश से मैं गुजरा हूं। मैं इस साधना से गुजर चुका 
हूं। 
स्पीरा, पृ. 
531  | 
| 
 
आत्मत्याग 
मैं अपने देशवासियों से कहता हूं कि उन्हें आत्मत्याग के अलावा और किसी सिद्धांत का 
अनुसरण करने की जरूरत नहीं है- प्रत्येक युद्ध से पहले आत्मत्याग आवश्यक है। आप 
चाहे 
हिंसा 
के पक्षधर हों या अहिंसा के,
आपको त्याग और अनुशासन की अग्निपरीक्षा से गुजरना ही होगा। 
वही, पृ. 
532 
	
	
  
मैं दुनिया के सामने घोषणा करना चाहता हूं,
यद्यपि पश्चिम के अनेक मित्रों के आदर से मैं वंचित हो गया हूं-और 
मुझे ग्लानि से अपना सिर झुका देना चाहिए; किंतु उनकी 
मित्रता अथवा प्रेम की खातिर भी मुझे अपनी अंतरात्मा की आवाज को दबाना नहीं चाहिए - 
मेरी अंतर्निहित प्रछति आज मुझे इसकी प्रेरणा दे रही है। 
मेरे अंदर कुछ है जो मुझे अपनी व्यथा को चीख-चीखकर सुना 
देने के लिए बाध्य कर रहा है। मैं मानवता से परिचित हूं। मैंने मनोविज्ञान का भी 
थोड़ा-बहुत अध्ययन किया है। ऐसा आदमी बात को ठीक-ठीक समझता है। मुझे इसकी चिंता 
नहीं कि आप इसे क्या कहकर पुकारते हैं। मेरी अंतरात्मा की आवाज मुझसे कहती है,
"तुम्हें सारी दुनिया के विरोध में खड़ा होना है,
भले ही तुम अकेले खड़े हो। दुनिया तुम्हें आग्नेय दृष्टि से देखें,
पर तुम्हें उनसे आंख मिलाकर खड़े रहना है। डरो मत। अपनी अंतरात्मा 
की आवाज का भरोसा करो।" यह आवाज कहती है 
"मित्रों का, पत्नी 
का और सभी का त्याग कर दो किंतु जिसके लिए तुम जिए हो और जिसके लिए तुम्हें मरना है,
उसके प्रति सच्चे बने रहो।" 
माना, पृ. 
201-202  | 
| 
 
पराजय की भावना नहीं 
पराजय मुझे हतोत्साहित नहीं कर सकती। यह मुझे केवल 
सुधार 
सकती है.... मैं जानता हूं कि ईश्वर मेरा मार्गदर्शन करेगा। सत्य मानवीय बुद्धिमला 
से श्रेष्ठतर है। 
यंग,
3-7-1924,
पृ. 
218 
	
	
  
मैंने कभी अपनी आशावादिता का त्याग नहीं किया है। प्रत्यक्षतः घोर विपलि के कालों 
में भी मेरे अंदर आशा की प्रखर ज्योति जलती रही है। मैं स्वयं आशा को नहीं मार 
सकता। मैं आशा के 
औचित्य 
का प्रत्यक्ष प्रदर्शन नहीं कर सकता पर मुझ में पराजय की भावना नहीं है। 
हरि, 
25-1-1935,
पृ. 
399 
	
	
  
मैं भविष्यदर्शन करना नहीं चाहता। मेरा काम वर्तमान की चिंता करना है। 
ईश्वर 
ने मुझे आगामी क्षण पर कोई नियंत्रण 
 नहीं 
दिया है.....  | 
| 
 
भरोसा 
यह सही है कि लोगों ने मुझे प्रायः निराश किया है। बहुतों ने मुझे धोखा दिया है और 
बहुतों ने अपने कर्तव्य का निर्वाह नहीं किया है। लेकिन मुझे उनके साथ काम करने का 
कोई 
पछतावा 
नहीं है। कारण,
कि मैं जिस तरह सहयोग करना जानता हूं, उसी 
तरह असहयोग करना भी जानता हू!। दुनिया में काम करने का सबसे व्यावहारिक और गरिमामय 
तरीका यही है कि जब तक किसी व्यक्ति के बारे में निश्चित रूप से कोई विरोधी साक्ष्य 
सामने न आए, उसकी बात का भरोसा किया जाए। 
 
यंग, 
26-12-1924,
पृ. 
430 
	
	
  
मुझे भरोसा करने में विश्वास है। भरोसा करने से भरोसा मिलता है। संदेह दुर्गंधमय है 
और इससे सिर्फ सड़न पैदा होती है। जिसने भरोसा किया है,
वह दुनिया में आज तक हारा नहीं है। 
यंग, 
4-6-1925, पृ. 193 
	
	
  
वचन-भंग मेरी आत्मा को 
झकझोर देता है, 
विशेषकर तब जबकि वचन-भंग करनवाले से मेरा कोई संबंध रहा हों। सलर वर्ष की अवस्था 
में मेरे जीवन का कोई बीमा मूल्य शेष नहीं है। इसलिए यदि किसी पवित्र और गंभीर वचन 
का विधिवत पालन कराने के लिए मुझे अपने जीवन की आहुति भी देनी पड़े तो मुझे सहर्ष 
इसके लिए तत्पर रहना चाहिए। 
हरि, 11-3-1939, पृ. 46 
	
	
  
जहां तक मेरी 
जानकारी है, 
अपने संपूर्ण सार्वजनिक तथा व व्यक्तिगत जीवन में,
मैंने कभी वचन-भंग नहीं किया है। 
हरि, 
22-4-1939,
पृ. 
100  | 
| 
	 
	
	
	मेरा नेतृत्व 
	
	उनके अनुसार मेरा दावा 
	है कि मैं किसी अन्य व्यक्ति की अपेक्षा मानव प्रछति को अधिक अच्छी तरह समझता 
	हूं। मेरा विश्वास है कि मेरा यह दावा सही है, 
	लेकिन अगर मुझे अपनी सच्चाई और अपने तरीकों में विश्वास न हो तो मैं शीर्ष 
	स्थान ग्रहण करने के योग्य नहीं रहूंगा। 
	
	
	यंग, 1-1-1925, पृ. 8 
	
		
		 
	 
	
	जहां तक मेरे नेतृत्व 
	का प्रश्न हैं, 
	यदि मैं नेता हूं तो, यह पद मुझे मांगने से नहीं बल्कि निष्ठापूर्वक सेवा करने 
	के फलस्वरूप प्राप्त हुआ है। जिस तरह व्यक्ति अपनी त्वचा के रंग को नहीं छोड़ 
	सकता, उसी प्रकार ऐसे नेतृत्व का त्याग भी नहीं कर सकता। और चूंकि मैं अपने 
	राष्टं का अभिन्न अंग बन चुका हूं, उसे मुझे मेरी सभी खामियों और सीमाओं के साथ 
	अंगीकार करना होगा। इनमें से बहुतसी खामियों और सीमाओं का मुझे दुखद बोध है और 
	शेष का स्मरण मेरे स्पष्टवादी आलोचक मुझे बराबर कराते ही रहते हैं। 
	
	
	यंग, 13-2-1930, पृ. 52 
	
		
		 
	 
	
	
	वह बढ़ई अयोग्य है जो अपने औजारों में कमियां निकालता है। वह सेनापति अयोग्य है 
	जो घटिया 
	कारगुजारी के लिए अपने सिपाहियों को दोष देता है। मैं जानता हूं कि मैं अयोग्य
	सेनापति नहीं हूं। मुझमें इतनी अक्ल है कि अपनी सीमाओं को 
	पहचान सकूं। यदि मेरे भाग्य में दिवालियापन लिखा होगा तो ईश्वर मुझे इसकी घोषणा 
	करने की शक्ति देगा। विगत लगभग आधी से मैं ईश्वर की अनुमति से जो काम करता आ 
	रहा हूं, उसके लिए जब मेरी जरूरत नहीं रहेगी तो संभवतः 
	वह मुझे स्वयं उठा लेगा। लेकिन मुझे लगता है कि अभी मेरा काम बाकी है;
	जो अंधकार मेरे चारों ओर फैल गया है, 
	वह दूर हो जाएगा और डांडी मार्च से भी शानदार किसी अभियान के परिणामस्वरूप अथवा 
	उसके बिना ही, भारत अहिंसक उपायों से अपने सच्चे स्वरूप 
	को प्राप्त कर सकेगा। मैं उस आलोक के लिए प्रार्थना कर रहा हूं जो इस अंधकार को 
	दूर कर 
	
 देगा। 
	जिन्हें अहिंसा में जाग्रत विश्वास है, वे मेरी इस 
	प्रार्थना में सम्मिलित हो जाएं। 
	
	
	हरि, 
	23-7-1938,
	पृ. 
	193  | 
| 
 
मेरा काम 
जो काम मेरे सामने है, 
उसे करके मैं संतुष्ट हूं। क्यों और किसलिए की फिव् मैं नहीं करता। विवेक हमें इस 
बात को समझने में सहायक होता है कि जिन चीजों की थाह हमें नहीं है, उनमें अपनी टांग 
न घुसेड़ें। 
हरि, 7-9-1935, पृ. 234 
	
	
  
यदि मैं मानवजाति को यह 
विश्वास दिलाने में सफल हो सकूं कि प्रत्येक त्री अथवा पुरुष, 
वह शरीर से कितना ही दुर्बल हो, अपने आत्मसम्मान और स्वातंत्र्य का रक्षक स्वयं है 
तो मैं समझूंगा कि मेरा काम पूरा हो गया है। प्रतिरोधी व्यक्ति के विरुद्ध सारी 
दुनिया एक हो जाए तो भी यह रक्षोपाय उपलब्ध रहना चाहिए।  
हिंस्ट, 6-8-1944 
	
	
  
मेरी आंखें मुंद जाने और इस 
काया के भस्मीभूत हो जाने के बाद भी मेरे काम पर निर्णय देने के लिए काफी समय शेष 
रह जाएगा।  
यंग, 
4-4-1929, पृ. 107  | 
| 
 
4.
मेरा जीवन-लक्ष्य  | 
| 
 
मैं दिव्यद्रष्टा नहीं हूं। मैं तो एक व्यावहारिक आदर्शवादी हूं। अहिंसा का धर्म 
केवल ऋषियों और संतों के लिए नहीं है। यह साधारण लोगों के लिए भी है। अहिंसा 
मानवजाति का नियम है, 
वैसे ही जैसे कि हिंसा पशु का। पशु में आत्मा सुप्त रूप में निवास करती है, इसलिए 
वह केवल शारीरिक शक्ति के नियम को ही जानता है। मनुष्य की गरिमा एक उच्चतर नियम के 
पालन की अपेक्षा रखती है-वह नियम है आत्मा की शक्ति।  
यंग, 11-8-1920, पृ. 3 
	
	
  
मेरे सार्वजनिक जीवन 
में कई अवसर ऐसे आए हैं जबकि प्रतिकार का सामर्थ्य होते हुए भी मैंने स्वयं को वैसा 
करने से रोका है और अपने मित्रों को भी ऐसा ही करने की सलाह दी है। 
मेरा जीवन इसी सिद्धांत को समर्पित है। मैंने दुनिया के सभी महान गुरुओं- जरथुश्त,
महावीर, डेनियल, 
ईशु, मोहम्मद, नानक और अन्य अनेक-के 
उपदेशों में इसे पाया है। 
यंग, 
9-2-1922,
पृ. 
85 
	
	
  
मेरे धर्म का पहला नियम अहिंसा है। यही मेरे पंथ का अंतिम 
नियम भी है। 
यंग, 23-3-1922, पृ. 166 
	
	
  
मैं अहिंसा के 
विज्ञान का एक अदना-सा खोजी हूं। इसकी अतल गहराइयों को देखकर मैं भी कभी-कभी उतना 
ही डगमगा 
 जाता 
हूं जितना कि मेरे साथी कार्यकर्ता। 
यंग, 
20-11-1924,
पृ. 
382  | 
| 
 
सत्याग्रह का लक्ष्य 
मेरा ध्येय अत्यंत संयम के साथ,
उदाहरण और उपदेश देते हुए सत्याग्रह के बेजोड़ अत्र के प्रयोग की 
शिक्षा देना है- सत्याग्रह जो अहिंसा तथा सत्य की प्रत्यक्ष परिणति है। 
मैं यह 
प्रदर्शित करने के लिए उत्सुक ही नहीं अपितु आतुर हूं कि जीवन की बहुत-सी बुराइयों 
का इलाज केवल अहिंसा है.. 
जब मैं बुराई करने के 
नाकाबिल हो जा।उंगा और मेरे विचारों की दुनिया में कोई कटु या दंभपूर्ण बात 
क्षणमात्र के लिए भी टिक नहीं सकेगी तब, और सिर्फ तब, मेरी अहिंसा दुनिया भर के 
लोगों के हृदयों का ंवित कर देगी। मैंने अपने और अपने पाठकों के सामने कोई अप्राप्य 
आदर्श या इम्तहान नहीं रखा है। इसे प्राप्त करना मनुष्य का विशेषाधिकार और 
जन्मसिद्ध अधिकार है। 
हमने स्वर्ग को खो 
दिया है, पर इसे दुबारा अवश्य प्राप्त करेंगे। यदि इसमें समय लगता है तो वह काल के 
अनंत चव् में एक मन के बराबर है। गीता के दिव्य गुरु भगवान कृष्ण ने कहा ही है कि 
मनुष्य के लाखों दिन ब्रां के एक दिन के बराबर होते हैं। 
यंग, 2-7-1925, पृ. 
232 
	
	
  
अहिंसा मेरा भगवान है 
और सत्य मेरा भगवान है। जब 
मैं अहिंसा को खोजता हूं तो सत्य कहता है, 
'इसे मेरे माध्यम से ढूंढो।' और जब मैं 
सत्य को खोजता हूं तो अहिंसा कहती है 'इसे मेरे माध्यम से 
ढूंढो'। 
यंग, 
4-6-1925,
पृ. 
191 
	
	
  
मुझे लगता है कि अहिंसा मेरे रोम-रोम में बसी है। अहिंसा और सत्य मेरे दो फेफड़े 
हैं। इनके बिना मैं जी नहीं सकता। लेकिन मैं प्रतिक्षण अधिकाधिक स्पष्टता के साथ 
अहिंसा की अतुल 
शक्ति और मनुष्य की लघुता का कायल होता जाता हूं। एक बनवासी भी अपनी असीम करूणा के 
बावजूद़ हिंसा से सर्वथा मुक्त नहीं होता। अपनी हर श्वास के साथ वह थोड़ी-बहुत 
हिंसा करता ही है।  
यह शरीर स्वयं एक 
बूचड़खाना है, अतः शरीर से मुक्ति में ही मोक्ष और परमानंद 
निश्चित हैं। इसीलिए मोक्ष 
के आनंद के सिवा सभी प्रकार के सुख क्षणिक और अपूर्ण हैं। वस्तुस्थिति यही 
है कि हमें अपने दैनिक जीवन में हिंसा के अनेक कड़वे 
 घूंट 
पीने पड़ते हैं। 
यंग, 
21-10-1926,
पृ. 
364  | 
| 
 
अहिंसा की प्रयुक्ति 
हमें सत्य और अहिंसा को व्यक्तिगत आचरण की ही नहीं बल्कि समूहों,
समुदायों और राष्टों के आचरण की वस्तु बनाना होगा। कम-से-कम मेरा 
स्वप्न तो यही है। और, मैं इसकी 
प्राप्ति का प्रयास करते हुए 
ही जीउंगा और मरूंगा। 
मेरा विश्वास मुझे 
प्रतिदिन नये सत्यों की खोज करने में सहायक होता है। अहिंसा तो आत्मा का स्वभाव है, 
इसलिए प्रत्येक व्यक्ति को जीवन के सभी कार्यकलापों में इस पर आचरण करना चाहिए। यदि 
यह सर्वत्र प्रयोग में न लाई जा सके तो इसका कोई व्यावहारिक मूल्य नहीं है। 
हरि, 2-3-1940, पृ. 
23 
	
	
  
सत्य और अहिंसा में 
मेरी आस्था बराबर बढ़ती जाती है। और जैसे-जैसे मैं अपने जीवन में इनका अनुसरण करने 
का प्रयास करता हूं, मेरा विकास होता जाता है। मेरे सामने उनके नये-नये निहितार्थ 
आते जाते हैं। मैं प्रतिदिन उन्हें एक नए आलोक में देखता हूं और उनमें नये-नये अर्थ 
पाता हूं। 
हरि, 1-5-1937, पृ. 
94 
	
	
  
मेरा लक्ष्य किसी 
घुमंतू शूरवीर जैसा नहीं है जो सर्वत्र घूमकर 
लोगों को उनकी विपलि से मुक्ति दिलाता है। मेरा विनम्र कार्य तो लोगों को यह दिखाना 
है कि वे अपनी कठिनाइयां स्वयं कैसे दूर कर सकते हैं। 
हरि,
28-6-1942,
पृ. 
201 
	
	
  
मेरी अपूर्णताएं और असफलताएं भी उसी प्रकार भगवान का वरदान हैं जैसे कि मेरी 
सफलताएं और मेरी योग्यताएं,
और मैं दोनों को उसके चरणों में निवेदित कर देता हूं। मेरे जैसे 
अपूर्ण व्यक्ति को उसने इतने महान प्रयोग के लिए क्यों चुना?
मेरी समझ में उसने जान-बूझकर ऐसा किया है। उसे लाखों निर्धन,
मूक और अज्ञानियों की सेवा करना अभीष्ट रहा होगा। कोई पूर्णता 
प्राप्त मनुष्य तो उनको संभवतः निराश ही करता। जब उन्होंने देखा कि उन जैसी 
कमजोरियों वाला एक व्यक्ति अहिंसा के मार्ग पर अग्रसर है तो उनमें भी अपनी सामर्थ्य 
के प्रति आत्मविश्वास जगा। यदि कोर्द पूर्णताप्राप्त व्यक्ति नेतृत्व के लिए आया 
होता तो हम उसे मान्यता न देते और शायद हम उसे गुफावास के लिए खदेड़ देते। हो सकता 
है कि मेरा अनुसरण करनेवाला व्यक्ति मुझसे अधिक पूर्ण सिद्ध हो सके और तुम उसका 
संदेश ग्रहण कर सकों। 
हरि, 
21-7-1940,
पृ. 
211  | 
| 
 
कोई 
गांधीवादी संप्रदाय नहीं 
मैं स्वयं को भारत और मानवता का एक अदना सेवक मानता 
हूं और इसी प्रकार सेवा करते हुए मर जाना पसंद करूंगा। मुझे कोई संप्रदाय चलाने की 
कामना नहीं है। मैं सचमुच इतना महत्वाकांक्षी हूं कि मेरा अनुगमन केवल एक संप्रदाय 
करे, 
इससे मुझे संतोष नहीं होगा। चूंकि मैं किन्हीं नये सत्यों का प्रतिनिधित्व नहीं 
करता, मैं 'चिरंतन' सत्य का, जैसा कि उसे जानता हूं, अनुगमन और प्रतिनिधित्व करने 
का प्रयास करता हूं। हां, यह अवश्य है कि मैं अनेक पुराने सत्यों पर नयी रोशनी 
डालता हूं। 
यंग, 25-8-1921, पृ. 267 
	
	
  
मैंने कोई नये सिद्धांत 
प्रस्तुत नहीं किए है बल्कि पुराने सिद्धांतों को ही पुनः प्रतिस्थापित करने का 
प्रयास किया है। 
यंग, 
2-12-1926, पृ. 419 
	
	
  
'गांधीवाद' जैसी कोई चीज नहीं है, और मैं अपने बाद कोई संप्रदाय 
छोड़ कर जाना नहीं चाहता। मैं यह दावा नहीं करता कि मैंने किसी नये सिद्धांत को 
जन्म दिया है। मैंने तो सनातन सत्यों 
को अपने दैनंदिन जीवन और समस्याओं के समाधान में अपने ढंग से लागू करने का प्रयास 
भर किया है..... 
दुनिया को सिखाने के लिए 
मेरे पास कोई नयी बात नहीं है। सत्य और अहिंसा उतने ही पुराने हैं जितने पर्वत। 
मैंने केवल इन दोनों को लेकर बड़े-से-बड़े पैमाने पर प्रयोग करने का प्रयास किया 
है। ऐसा करते समय मुझसे गलतियां हुई हैं और इन गलतियों से मैंने सबक लिया है। इस 
प्रकार, जीवन और उसकी समस्याओं ने मेरे लिए सत्य और अहिंसा पर आचरण के अनेक 
प्रयोगों का रूप ले लिया है। 
स्वभाव से मैं सत्यवादी 
हूं, अहिंसक नहीं। जैसा कि किसी जैन मुनि ने एक बार ठीक ही कहा था, मैं अहिंसा का 
उतना पक्षधर नहीं हूं जितना कि सत्य का और मैं सत्य को प्रथम स्थान देता हूं और 
अहिंसा को द्वितीय 
। क्योंकि, जैसा कि उन मुनि ने कहा, मैं सत्य के लिए अहिंसा की 
बलि दे सकता हूं। दरअसल, अहिंसा 
को मैंने सत्य की खोज करते हुए पाया है। 
हरि, 28-3-1936, पृ. 49 
	
	
  
गांधीवाद क्या है, मैं 
स्वयं नहीं जानता। मैं अज्ञात 
समुद्र में अपनी नाव खे रहा हूं। मुझे बार-बार 
समुद्र की 
थाह लेनी पड़ती 
 है। 
हरि, 17-12-1938, पृ. 385 
	
	
  
भला 'गांधीवादी' भी कोई नाम 
में नाम है? उसकी बजाय 'अहिंसावादी' क्यों नहीं? क्योंकि गांधी तो अच्छाई और बुराई, 
कमजोरी और मजबूती, हिंसा और अहिंसा का मिश्रण है जबकि अहिंसा में कोई मिलावट नहीं 
है। 
हरि, 13-5-1939, पृ. 121 
	
	
  
अब मैं तथाकथित 'गांधीवादी' 
सिद्धांत और उसके प्रचार के उपायों की चर्चा करूंगा। सत्य और अहिंसा का प्रचार
पुस्तकों के माध्यम से उतनी अच्छी तरह नहीं किया जा सकता जितना कि उन पर आचरण के 
द्वारा किया जा सकता है। सच्चाई से जी गई जिंदगी पुस्तकों से ज्यादा प्रभावकारी 
होती है। 
वही, पृ. 
122 
	
	
  
मेरे सभी परामर्शों में बचाव का एक वाक्य हमेशा जुड़ा रहता है। वह यह कि जब तक मेरा 
परामर्श दिलो-दिमाग को सही न लगे,
तब तक उसे मानने की जरूरत नहीं है। जिसे सचमुच अपने अंदर 
की आवाज सुनाई देती है, उसे मेरा परामर्श मानने की खातिर अपने अंदर की आवाज की 
अवज्ञा नहीं करनी चाहिए। दूसरे शब्दों में, मेरा परामर्श उन्हीं के अनुसरण के लिए 
है जिन्हें अपने अंदर की आवाज का बोध नहीं है और जिन्हे मेरे अपेक्षाछत अधिक अनुभव 
तथा सही निर्णय लेने की क्षमता पर भरोसा है। 
हरि, 15-7-1939, पृ. 197 
	
	
  
अगर गांधीवाद भ्रांति पर 
आधारित है तो उसका नष्ट हो जाना ही उचित है। सत्य और अहिंसा कभी नष्ट नहीं होंगे 
किंतु यदि गांधीवाद किसी पंथ-संप्रदाय का पर्याय है तो उसका नष्ट हो जाना ही उचित 
है। यदि मुझे अपनी मृत्यु के बाद पता चले कि मैं जिन आदर्शों के लिए जिया,
उनका कोई 
पंथ-संप्रदाय बन गया है तो मुझे गहरी वेदना होगी....। 
कोई यह न कहे कि वह गांधी 
का अनुगामी है। अपना अनुगमन मैं स्वयं करूं, यही काफी है। मुझे पता है, मैं अपना 
कितना अपूर्ण अनुगामी हूं, क्योंकि मैं अपनी आस्थाओं के अनुरूप जी नहीं पाता। आप 
मेरे अनुगामी नहीं हैं बल्कि सहपाठी हैं, सहयात्री हैं, सहखोजी हैं और सहकर्मी हैं। 
हरि, 2-3-1940, पृ. 23 
	
	
  
अगर कोई गांधीवादी हो तो वह 
मुझे होना चाहिए। लेकिन मुझे आशा है कि मैं ऐसा कोई दावा करने का दंभ नहीं करूंगा। 
गांधीवादी का अर्थ है गांधी की पूजा करने वाला। पूजा तो ईश्वर 
की की जाती है। मैंने ईश्वरत्व का दावा करने का दंभ कभी नहीं किया,
अतः कोई मेरा भक्त नहीं कहला सकता। 
हरि, 
2-11-1947,
पृ. 
389  | 
| 
 
पीड़ा 
का नियम 
मैंने भारत के सामने आत्मत्याग के प्राचीन नियम को प्रस्तुत 
करने का जोखिम उठाया है। वस्तुतः सत्याग्रह और उसकी शाखा-प्रशाखा-असहयोग और सविनय 
प्रतिकार, 
और कुछ नहीं हैं, सिवाय आत्मतप एवं कष्ट सहन के नियमों के नये नामों के। 
वे ऋषि न्यूटन से भी अधिक प्रतिभाशाली थे जिन्होंने हिंसा के बीच रहते हुए अहिंसा 
के नियम की खोज की। वे वेलिंग्टन से भी बड़े योद्धा थे कि अत्रों के प्रयोग के 
ज्ञाता होने पर भी जिन्होंने उनकी व्यर्थता को पहचाना और परेशान दुनिया को सिखाया 
कि उसकी मुक्ति हिंसा में नहीं अपितु अहिंसा में 
निश्चित है। 
अपनी 
गत्यात्मक स्थिति में, 
अहिंसा का अर्थ है विवेकपूर्वक कष्ट-सहन। इसका अर्थ अत्याचारी की इच्छा के समक्ष 
कायर समर्पण नहीं है, बल्कि इसका अर्थ है अत्याचारी की इच्छा के विरुद्ध अपनी पूरी 
आत्मिक शक्ति से उठ खड़े होना। इस नियम पर चलते हुए कोई आदमी अकेला ही अपने सम्मान, 
अपने धर्म और अपनी आत्मा की रक्षा के लिए किसी अन्यायी साम्राज्य की समूची शक्ति को 
चुनौती दे सकता है और उस साम्राज्य के पतन अथवा नवजीवन की नींव रख 
 सकता 
है।  | 
| 
 
भारत 
की भूमिका 
अतः मैं भारत से अहिंसा के मार्ग पर चलने का अनुरोध इसलिए नहीं कर रहा कि वह कमजोर 
है। मैं चाहता हूं कि वह अपने बल और अपनी शक्ति के प्रति सचेत रहते हुए अहिंसा का 
आचरण 
करे। भारत को अपने बल को पहचानने के लिए हथियारों के प्रशिक्षण की जरूरत नहीं है। 
हमें इसकी जरूरत इसलिए महसूस होती है कि हम अपने को केवल हाड़-मांस का ढेर समझते 
हैं। 
मैं चाहता हूं कि भारत को इसका बोध हो कि उसकी एक आत्मा है जो अविनाशी है और जो 
प्रत्येक भौतिक दुर्बलता 
से उपर उठकर विजयी हो सकती है और समस्त संसार के भौतिक बल 
का 
चुनौती दे सकती है। 
यंग,
11-8-1920,
पृ. 
3-4 
	
	
  
यदि मैं अहंकाररहित भावना से और विनम्रतापूर्वक कहूं तो मेरा संदेश और मेरे तरीके 
तत्वतः सारी दुनिया के लिए हैं और मुझे यह देखकर परम संतोष होता है कि विशाल और
निरंतर 
वर्धमान संख्या में पश्चिम के त्री और पुरुषों के हृदयों को इन्होंने आश्चर्यजनक 
ढंग से प्रभावित किया है। 
यंग,
17-9-1925,
पृ. 
320  | 
| 
 
विश्वबंधुत्व 
मेरा जीवन-लक्ष्य केवल भारतवासियों में बंधुत्व की स्थापना करना नहीं है। मेरा 
लक्ष्य केवल भारत की आजादी नहीं है,
यद्यपि इसमें संदेह नहीं कि आज मेरा लगभग संपूर्ण जीवन और 
पूरा समय इसी में लगा है। किंतु, भारत की आजादी के जरिए, मैं विश्वबंधुत्व के 
लक्ष्य को प्राप्त करना चाहता हूं। 
मेरी देशभक्ति कोई व्यावर्तक वस्तु नहीं है। यह सर्वसमावेशी है और मैं उस देशभक्ति 
को त्याग दूंगा जो अन्य राष्टों को व्यथित अथवा शोषित करके अपनी प्रबलता सिद्ध करने 
का प्रयास करे। देशभक्ति के मेरे विचार की यदि निरपवाद रूप से समस्त मानवता के 
अधिकाधिक कल्याण के साथ संगति न हो तो वह बेकार है। 
यही नहीं, 
मेरा धर्म और धर्म से व्युत्पन्न मेरी देशभक्ति समस्त जीवन को परिव्याप्त करती है। 
मैं केवल मानवों के साथ ही तादात्म्य अथवा बंधुत्व स्थापित करना नहीं चाहता, अपितु 
पृथ्वी पर रेंगने वाले कीड़े-मकोड़ों के साथ भी तादात्म्य अथवा बंधुत्व स्थापित 
करना चाहता हूं.... क्योंकि हम यह मानते हैं कि हम सब उसी ईश्वर की संतान हैं और 
इसलिए, जीवन जिस रूप में भी दिखाई देता है, तत्वतः एक ही होना चाहिए। 
यंग, 
4-4-1929,
पृ. 
107 
	
	
  
मुझे अपने जीवन-लक्ष्य में इतनी गहरी आस्था है कि यदि 
उसकी 
प्राप्ति में सफलता मिलती है-और मिलना अवश्यंभावी है- तो इतिहास में यह बात दर्ज 
होगी कि यह आंदोलन विश्व के सभी लोगों को एक सूत्र में पिरोने के लिए था जो एक- दूसरे 
के विरोधी नहीं बल्कि एक समष्टि के अंग होंगे। 
हरि,
26-1-1934,
पृ. 
8  | 
| 
 
अहिंसक मार्ग 
मेरी महत्वाकांक्षा सीमित है। ईश्वर ने मुझे सारी दुनिया को अहिंसा के मार्ग पर ले 
जाने की शक्ति प्रदान नहीं की है। लेकिन मेरी कल्पना है कि उसने भारत की अनेक 
बुराइयों के समाधान के लिए उसे अहिंसा का 
मार्ग दिखाने के वास्ते मुझे अपने साधन के रूप में चुन लिया है। इस दिशा में अब तक 
की प्रगति बड़ी भारी है। पर अभी बहुत कुछ करना बाकी है। 
हरि, 23-7-1938, पृ. 193 
	
	
  
छल-कपट और असत्य आज दुनिया के सामने सीना ताने खड़े हैं। मैं ऐसी स्थिति का विवश 
साक्षी नहीं बन सकता... यदि आज मैं चुपचाप और 
निष्क्रिय बन कर बैठ जाउंगा तो ईश्वर
मुझे इस बात के लिए दंडित करेगा कि मैंने समूची दुनिया को अपनी चपेट में ले रही इस 
आग को बुझाने के लिए उसके द्वारा प्रदल सामर्थ्य का इस्तेमाल क्यों नहीं किया। 
बांव,
9-8-1942 
	
	
  
मैं दूसरों पर अपने निजी विश्वास आरोपित नहीं कर सकता,
किसी राष्टींय संगठन पर तो कभी नहीं। मैं तो केवल राष्टं को उसकी 
सुंदरता और उपादेयता का भरोसा दिलाने का प्रयास कर सकता हूं... 
यह अनर्थकारी होगा 
यदि मैं अपनी जिद से देश को अन्य साधनों के जरिए प्रगति न करने दूं, 
जब तक कि ये साधन निश्चित रूप से शरारतपूर्ण और हानिकर ही न हों। उदाहरण 
के लिए, मुझे वास्तविक हिंसा का विरोध करना चाहिए भले ही 
विरोध करने वाला मैं अकेला व्यक्ति होउंगा
। लेकिन मैंने यह स्वीकार किया है कि राष्टं 
को, यदि वह चाहे तो, इस बात का 
अधिकार है कि वह वास्तविक हिंसा का इस्तेमाल करके भी अपनी आजादी हासिल कर ले। सिर्फ 
यह होगा कि तब भारत मेरे जन्म की भूमि होने के बावजूद मेरे प्रेम की भूमि नहीं रह 
जाएगा, उसी प्रकार जैसे मेरी मां पथभ्रष्ट हो जाए तो मुझे 
उसका गौरव नहीं रहेगा। 
यंग, 
20-11-1924,
पृ. 
382 
	
	
  
मुझमें सार्वभौम अहिंसा का प्रचार करने की क्षमता नहीं है। इसलिए मैं अपनी आजादी 
हासिल करने के सीमित लक्ष्य के लिए अहिंसा के इस्तेमाल का प्रचार करता हूं और 
इसीलिए शायद अंतर्राष्टींय संबंधों का अहिंसक 
उपायों से नियमन करने का प्रचार करता हूं। सार्वभौम अहिंसा का प्रचार करने से पहले 
मुझे वासनाओं से पूरी तरह मुक्त हो जाना आवश्यक है और ऐसी स्थिति को भी हासिल करना 
आवश्यक है जिसमें मुझसे कभी कोई पाप न हो। 
हरि, 25-1-1942, पृ. 15 
	
	
  
मेरा उपदेश और सीख 
भावनात्मक या अव्यावहारिक नहीं हैं। मैं वही सीख देता हूं जो प्राचीन काल से चली आ 
रही है और जो उपदेश देता हूं, 
उस पर स्वयं आचरण करने का प्रयास करता हूं। और मेरा दावा है कि 
मेरे समान आचरण सभी कर सकते हैं क्योंकि मैं एक अत्यंत साधारण देहधारी हूं और उन 
सभी प्रलोभनों  और  दुर्बलताओं 
का  शिकार  हो 
सकता  हूं  जिनका 
कि  हममें से घटिया-से-घटिया आदमी हो सकता 
है। 
यंग, 
15-12-1927,
पृ. 
424 
	
	
  
मैं सार्वभौम अहिंसा की बात तो करता हूं,
पर मेरा प्रयोग भारत तक सीमित है। अगर मैं कामयाब हो जाता हूं तो 
पूरी दुनिया इसे सहज ही स्वीकार कर लेगी। लेकिन यह 'अगर'
बहुत बड़ी है। विलंब 
की चिंता मैं नहीं करता। अभेद्य अंधकार में 
 मेरा 
विश्वास सर्वाधिक प्रकाशमान रहता है। 
हरि, 
11-2-1939, पृ. 8 
	
	
  
पता नहीं क्यों, 
मुझे युरोप और अमरीका जाने में भय लगता है। इसलिए नहीं कि मुझे अपने देशवासियों की 
अपेक्षा उनका अविश्वास अधिक है, पर इसलिए कि मुझे स्वयं पर विश्वास नहीं है। मुझे 
स्वास्थ्य सुधारने अथवा देशभ्रमण के लिए पश्चिम की यात्रा करने की कोई कामना नहीं 
है। मुझे सार्वजनिक भाषण देने की भी कामना नहीं है। मुझे 
महिमामंडित किया जाए, इसे मैं कतई पसंद नहीं करता। मेरे 
ख्याल से मुझमें सार्वजनिक भाषण देने और सार्वजनिक प्रदर्शनों में भाग लेने के भीषण 
तनावों को झेलने लायक शारीरिक क्षमता अब शायद ही फिर से आ पाये। 
यदि ईश्वर कभी मुझे पश्चिम की यात्रा पर भेजे तो मैं वहां की जनता के हृदयों में 
पैठने,
युवावर्ग से शांतिपूर्वक बातचीत करने और अपने सदृश 
लोगों से - वे लोग जो सत्य के अलावा बाकी किसी भी कीमत पर शांति चाहते हैं - मिलने को 
सौभाग्य प्राप्त करने के लिए जाना चाहूंगा। 
लेकिन मैं अनुभव करता हूं कि अभी मेरे पास पश्चिम को व्यक्तिगत रूप से देने के लिए 
कोई संदेश नहीं है। मेरा विश्वास है कि मेरा संदेश सार्वभौम है,
पर मैं अभी यह अनुभव करता हूं कि मैं अपने ही देश में काम करके इसे 
ज्यादा अच्छी तरह पहुंचा सकता हूं। यदि मैं भारत में प्रत्यक्ष सफलता प्रदर्शित कर 
सकूं तो मेरा संदेश पूरी तरह लोगों तक पहुंच जाएगा। 
यदि मैं इस नतीजे पर पहुंचता हूं कि भारत के लिए मेरे संदेश का कोई उपयोग नहीं है 
तो उसके प्रति आस्था होने पर भी मुझे अन्य श्रोताओं तक उसे पहुंचाने के लिए कहीं 
बाहर जाने की फिव् नहीं करनी चाहिए। अगर मैं बाहर जाउंगा तो मुझे पहले इस बात का 
विश्वास होना चाहिए,
चाहे सबकी तसल्ली के लायक मैं उसका प्रमाण न दे सकूं,
कि मेरा संदेश भारत में ग्रहण किया जा रहा है,
भले ही उसकी गति बिलकुल धीमी हो। 
म, प्प् पृ. 
417 
	
	
  
जब मैं ऐसा हो जा।उंगा कि मुझसे बुराई हो ही नहीं और मेरे 
विचारों 
की दुनिया में कोई कटु या दंभपूर्ण बात क्षणमात्र के लिए भी टिके नहीं,
तब, और सिर्फ तब, 
मेरी अहिंसा दुनिया भर के लोगों के हृदयों को ंवित कर देगी। 
यंग, 
2-7-1925,
पृ. 
232 
	
	
  
मेरे जैसे लाखों लोग अपने जीवनकाल में सत्य का प्रमाण देने में 
असफल 
रह सकते हैं,
लेकिन वह असफलता उनकी 
 होगी, 
(सत्य के) सनातन नियम की कभी नहीं। 
म, टप्प्प् पृ. 
23  | 
| 
 
5.
अंतःकरण की आवाज  | 
| 
 
जीवन में ऐसे क्षण आते हैं जब कुछ चीजों के लिए हमें बाह्य प्रमाण की आवश्यकता नहीं 
होती। हमारे अंदर से एक हल्की-सी आवाज हमें बताती है, 
'तुम सही रास्ते पर हो, दाएं-बाएं 
मुड़ने की जरूरत नहीं है, सीधे और संकरे रास्ते पर आगे बढ़ते जाओ। 
ली, 
25-12-1916,  
	
	
  
तुम्हारे जीवन में 
ऐसे क्षण आएंगे जब तुम्हें कदम उठाना होगा,
चाहे तुम अपने घनिष्ठ-से-घनिष्ठ मित्रों को भी अपना साथ देने के 
लिए सहमत न कर सको। जब कर्तव्यविमूढ़ हो जाओ तो सदैव 'अंतःकरण 
की आवाज' को ही अपना अंतिम निर्णायक मानो। 
 
यंग, 
4-8-1920,
पृ. 3 
	
	
  
आत्मशुद्धी का अनवरत प्रयास करते-करते मैंने 
'अंतःकरण की आवाज' को सही-सही और स्पष्ट रूप से सुन पाने की किंचित क्षमता अर्जित 
कर ली है।  
एफा, पृ. 34 
	
	
  
जिस क्षण मैं अंतःकरण की छोटी-सी आवाज को अवरुद्ध कर 
दूंगा, मेरी उपयोगिता ही समाप्त हो जाएगी। 
यंग, 3-12-1925, पृ. 422 
	
	
  
 मेरे 
प्रायश्चिल कोई यांत्रिक व्याएं नहीं हैं। ये अंतःकरण की आवाज 
के आदेश पर किए जाते हैं। 
यंग,
2-4-1931,
पृ. 60  | 
| 
 
झूठा 
दावा नहीं 
यदि कोई व्यक्ति दैवी प्रेरणा या अंतःकरण की आवाज के अभाव 
में भी उसका अनुगमन करने का दावा करे तो उसका हश्र उससे भी बुरा होगा जो किसी लौकिक 
सम्राट के प्राधिकार के अनुसार काम करने का झूठा दावा करता है। लौकिक सम्राट के 
झूठे अनुगामी को तो भंडा फूटने पर केवल शारीरिक दंड मिलेगा, लेकिन अंतःकरण की आवाज 
सुनने का झूठा दावा करने वाला शरीर और आत्मा, दोनों का विनाश कर बैठेगा। 
 
उदार आलोचक मुझे 
कपटी तो नहीं मानते, लेकिन उनका ख्याल है कि मैं संभवतः किसी विभ्रम का श्कार होकर 
काम करता हूं। यदि यह सही हो तो इसका नतीजा भी उससे कोई ज्यादा 
भिन्न नहीं होगा जैसा कि झूठे दावेदार का होगा। मेरे जैसे साधारण खोजी को अत्यंत 
सावधान रहने की आवश्यकता है और अपना मानसिक संतुलन बनाए रखने के लिए,
उसे अपनी हस्ती को पूरी तरह मिटा देना होगा,
तभी ईश्वर उसका पथप्रदर्शन करेगा। मैं इस विषय की और अधिक चर्चा 
नहीं करूंगा। 
मेरे विभ्रमग्रस्त होने का कोई प्रश्न ही नहीं है। मैंने एक सीधा-सादा वैज्ञानिक 
सत्य प्रस्तुत किया हैं जिसे वे सभी लोग जांच-परख सकते है जिनमें इसके लिए अपेक्षित 
योग्यताओं को अर्जित करने की इच्छा और धैर्य हो। स्वयं इन योग्यताओं को समझना और 
अर्जित करना बेहद आसान है बशर्ते कि व्यक्ति में दृढ़ इच्छा हो। 
बांव,
18-11-1932 
	
	
  
तुम्हें किसी और पर नहीं,
अपने पर विश्वास करने की आवश्यकता है। तुम्हें अंतःकरण की आवाज को 
सुनने का प्रयास करना होगा। तुम इसे 'अंतःकरण की आवाज'
न कहना चाहो तो 'तर्क-बुद्धी 
का निर्देश' कह सकते हो, पर उसका 
तुम्हें पालन करना चाहिए, और यदि तुम ईश्वर का नाम नहीं 
लोगे तो निस्संदेह किसी और का लोगे जो अंततः ईश्वर ही साबित होगा,
क्योंकि इस ब्रांड में ईश्वर के अलावा और कुछ है ही नहीं। 
मैं यह भी निवेदन करना चाहूंगा कि अंतःकरण की आवाज की प्रेरणा पर कार्य करने का 
दावा करनेवाले प्रत्येक व्यक्ति को वह प्रेरणा नहीं होती। हर क्षमता की तरह 
अंतर्वाणी को सुनने की क्षमता भी पूर्व प्रयास और प्रशिक्षण से विकसित होती है। 
किसी अन्य क्षमता के विकास के लिए जितना प्रयास और प्रशिक्षण अपेक्षित है,
उससे कहीं ज्यादा अंतःकरण की आवाज को सुनने की क्षमता विकसित करने 
के लिए आत्मप्रशिक्षण चाहिए। अगर हजारों दावेदारों में से कुछ थोड़े-से लोग भी अपना 
दावा सिद्ध करने में सफल हो पाएं तो संदेहास्पद दावेदारों को बर्दाश्त करने का खतरा 
उठाने में कोई हर्ज 
 नहीं 
है। 
म, प्प्प्,
पृ. 
229 
	
	
  
मेरी जानकारी में किसी ने इस संभावना से इंकार नहीं किया है कि कुछ लोगों को 
'अंतःकरण की आवाज' सुनाई देती है और अगर एक 
आदमी का भी दावा सच्चा हो कि वह अंतःकरण की आवाज के आदेश पर 
अपनी बात कहता है तो इससे दुनिया का फायदा है। दावा बहुत-से लोग कर सकते हैं,
पर वे उसकी सच्चाई का प्रमाण नहीं दे पाएंगे। लेकिन झूठे दावेदारों 
को रोकने की खातिर सच्चे दावेदारों का दमन नहीं किया जा सकता। और किया भी नहीं जाना 
चाहिए। 
अगर ऐसे बहुत-से लोग हों जो अंतःकरण की आवाज का ईमानदारी से प्रतिनिधित्व कर सकें 
तो कोई हानि नहीं। पर दुर्भाग्य से,
ढोंग का कोई इलाज नहीं है। सद्गुण का दमन नहीं करना चाहिए,
भले ही अनेक लोग उसका ढ़ोंग करें। दुनिया में हमेशा ऐसे लोग होते 
आए हैं जो अंतःकरण की आवाज के प्रतिनिधित्व का दावा करते हैं। लेकिन उनके अल्पजीवी 
कार्यकलाप से अभी तक दुनिया का कोई अनर्थ नहीं हुआ है। 
'अंतःकरण की आवाज' को सुनने की क्षमता का 
विकास करने के लिए मनुष्य को बड़ी लंबी और काफी कठिन साधना करनी पड़ती है और 
'अंतःकरण की आवाज' जब बोलने लगती है तो वह 
अमोघ होती है। दुनिया को आप सदा के लिए मूर्ख बनाने में कामयाब नहीं हो सकते। इसलिए 
अगर मेरे जैसे अदना आदमी का दमन न किया जा सके और वह इस विश्वास के आधार पर कि उसने 
अंतःकरण की आवाज सुन ली है, उसके आदेश को मुखर करने का दवा 
करे तो संसार में अराजकता फैलने का कोई खतरा नहीं है। 
हरि, 
18-3-1933,
पृ. 
8 
	
	
  
मेरा दावा कि मैं ईश्वर की आवाज को सुन सकता हूं,
कोई नया दावा नहीं है। दुर्भाग्य से, अपने 
कामों के परिणामों के अलावा कोई और तरीका मुझे इस दावे को प्रमाणित करने का ज्ञात 
नहीं है। ईश्वर अपने बंदो को इस बात की अनुमति दे दे कि वे उसे प्रमाण का पात्र बना 
सकें तो फिर वह ईश्वर ही क्या? लेकिन यह
अवश्य है कि वह अपने सेवक का बड़ी-से-बड़ी अग्निपरीक्षा में खरा 
उतरने की शक्ति देता है। 
मैं गत आधी शताब्दी से भी अधिक समय से इस अत्यंत कठोर स्वामी का तत्पर सेवक बना हुआ 
हूं। जैसे-जैसे समय बीतता जाता है,
उसकी आवाज मुझे अधिकाधिक स्पष्ट सुनाई देती जाती है। उसने घोर 
विपलि में भी मेरा साथ नहीं छोड़ा है। उसने प्रायः स्वयं मुझसे मेरी रक्षा की है और 
स्वाधीनता का लेश भी मेरे पास नहीं छोड़ा है। मैं जितना ही 
 अधिक 
उसके प्रति समर्पित होता हूं, उतना ही अधिक आनंद पाता हूं। 
हरि, 
6-5-1933,
पृ. 
4  | 
| 
 
ईश्वरीय वाणी 
मेरे लिए ईश्वर की,
अंतःकरण की अथवा सत्य की वाणी, 'अंतःकरण की 
आवाज' या 'हल्की-सी भीतरी आवाज'
सब एक ही चीज हैं। मुझे ईश्वर के कभी प्रत्यक्ष दर्शन नहीं हुए। 
मैंने इसके लिए कभी प्रयास भी नहीं किया-मैंने ईश्वर को सदा निराकार माना है। लेकिन 
मैंने जो सुनी वह वाणी कहीं दूर से आ रही थी, पर फिर भी 
काफी नजदीक लगती थी। उसे सुनने में मुझसे कोई चूक नहीं हुई है,
वह इतनी स्पष्ट थी जैसे कोई आदमी मुझसे बात 
कर रहा हो। उस आवाज में एक अदम्य आकर्षण था। जिस समय मैंने वह आवाज सुनी,
मैं स्वप्न नहीं देख रहा था। उस आवाज को सुनने से पहले मेरे अंदर 
घोर संघर्ष छिड़ा था। अचानक मुझे वह आवाज सुनाई दी। मैंने उसे सुना,
जब निश्चिंत हो गया कि यह आवाज उसी की है तो अंदर का संघर्ष समाप्त 
हो गया। मैं शांत हो गया। तद्नुसार संकल्प कर लिया, उपवास 
की तारीख और समय निश्चित हो गए... 
क्या मैं इसका कोई प्रमाण दे सकता हूं कि जो आवाज मैंने सुनी थी,
वह सचमुच ईश्वरीय वाणी ही थी, मेरी अपनी 
उलेजित कल्पना की प्रतिध्वनि नहीं थी? संदेहालुओं को 
आश्वस्त करने के लिए मेरे पास कोई और प्रमाण नहीं है। वह यह कहने के लिए स्वतंत्र 
हैं कि यह मेरी अपनी भ्रांति अथवा विभ्रम है। हो भी सकता है। मेरे पास इस विचार को 
खंडित करने के लिए भी कोई तर्क नहीं है। लेकिन मैं एक बात कहना चाहूंगा कि अगर सारी 
दुनिया भी एक स्वर से इसे झूठ कहे तो भी मेरा यह विश्वास अडिग रहेगा कि मैंने जो 
आवाज सुनी थी, वह ईश्वरीय वाणी ही थी। 
लेकिन कुछ लोगों का मानना है कि ईश्वर स्वयं हमारी कल्पना की सृष्टि है। अगर यह 
दृष्टिकोण ठीक है तो कुछ भी वास्तविक नहीं है,
सब कुछ हमारी कल्पना की सृष्टि ही है। तब भी,
जब तक मेरी कल्पना मुझ पर हावी है, मैं उसी 
के सम्मोहन में बंधकर काम कर सकता हूं। वास्तविक से वास्तविक चीजें भी सापेक्ष रूप 
से ही वास्तविक होती हैं। मेरे लिए यह ईश्वराय वाणी मेरे अपने अस्तित्व से भी अधिक 
वास्तविक थी। उसने कभी मुझे धोखा नहीं दिया है, किसी को 
नहीं देती। और जो चाहे, उस आवाज को सुन सकता है। वह सबके 
भीतर मौजूद है। लेकिन अन्य सभी चीजों की तरह उसके लिए भी पहले निश्चित तैयारी की 
जरूरत है। 
हरि, 
8-7-1933,
पृ. 
4 
	
	
  
सही या गलत,
मैं जानता हूं कि सत्याग्रही के रूप में हर संभव
कठिनाई में मेरे पास ईश्वर की सहायता के अलावा और कोई साधन नहीं 
है। और मैं चाहूंगा कि लोग यह विश्वास करें कि मेरे दुर्बोध लगने वाले काम मैंने 
वस्तुतः अपने अंदर की आवाज के आदेश पर किए हैं। 
यह मेरी 
उलेजित कल्पना की उपज भी हो सकती है। अगर ऐसा है तो मैं उस कल्पना की कं करता हूं 
जिसने पचपन से भी अधिक वर्षों तक मेरे जीवन के उतार-चढ़ावों में मेरा साथ दिया है;
पचपन वर्ष इसलिए कहता हूं कि मैंने पंह वर्ष का 
 होने 
से पहले ही सचेतन रूप से ईश्वर पर भरोसा करना सीख लिया था। 
हरि, 
11-3-1939,
पृ. 46  | 
| 
 
6.
मेरे उपवास  | 
| 
 
मेरा धर्म मुझे सिखाता है कि जब-जब आप ऐसे कष्ट में हों 
जिसका 
निवारण न कर सकें तो उपवास और प्रार्थना करें। 
यंग,
25-9-1924,
पृ. 
319 
	
	
  
ये (उपवास) मेरे अस्तित्व का अंग 
हैं। मिसाल के तौर पर, मेरे लिए जितनी 
जरूरी मेरी आंखें हैं, उतने ही जरूरी उपवास भी हैं। बाह्य 
जगत के लिए जो महत्व आंखों का है, अंतःकरण के लिए वही महत्व 
उपवासों का है। 
यंग, 
3-12-1925,
पृ. 422  | 
| 
 
उपरी 
आदेश 
इन में उपवासों को किसी के आदेश पर शुरू नहीं करता। आमरण
उपवास कोई हल्की-फुल्की चीज नहीं है। वे पूर्णतः अवांछनीय भी माने जा सकते हैं। 
इन्हें वेध में आकर नहीं किया जा सकता। वेध तो अल्पजीवी पागलपन है। इसलिए,
मुझे उपवास तभी करना चाहिए जब मेरी अंतःकरण की आवाज मुझे इसका आदेश 
दे। 
हरि, 
15-6-1947,
पृ. 
194  | 
| 
 
उपवास 
और प्रार्थना 
सच्चा उपवास शरीर,
मन और आत्मा-तीनों की शुद्धि करता है। यह देह को यंत्रणा देता है 
और उसी सीमा तक आत्मा को स्वतंत्र करता है। इसमें सच्चे हृदय से की गई प्रार्थना 
आश्चर्यजनक परिणाम उत्पन्न कर सकती है। यह आत्मा की और अधिक 
शुद्धि के लिए की जाने वाली आर्त पुकार ही तो है। इस प्रकार प्राप्त की गई शुद्धि 
जब किसी शुभ उप्sश्य के लिए प्रयुक्त होती है तब वह 
प्रार्थना बन जाती है। 
यंग, 
24-3-1920,
पृ. 
1 
	
	
  
मेरा मानना है कि उपवास के बिना प्रार्थना नहीं हो सकती और प्रार्थना 
के बिना सच्चा उपवास नहीं हो सकता। 
हरि, 
16-2-1933, पृ. 2 
	
	
  
पूर्ण उपवास पूर्ण 
और सच्चा आत्मत्याग है। यह सर्वोलम प्रार्थना है। 
'मेरा जीवन ले लो, यह सदा तेरे और केवल तेरे लिए है' की पुकार मुख से निकलने वाली 
निरर्थक या प्रतीकात्मक बात नहीं होनी चाहिए। यह बिना किसी 
हिचकिचाहट के अपने आपको बेफिव् होकर सहर्ष समर्पित कर देने की भावना से युक्त होनी 
आवश्यक है। भोजन और यहां तक कि जल 
 का 
त्याग भी केवल उसकी शुरूआत है, यह तो समर्पण का सबसे कम 
महत्वपूर्ण पक्ष है। 
हरि, 
15-4-1933,
पृ. 
4  | 
| 
 
देह 
का वशीकरण 
जब तक भगवत्छपा का परिणाम न हो तब तक उपवास,
और ज्यादा बुरा नहीं तो,
व्यर्थ भूखों मरना है। 
हरि, 
11-4-1939,
पृ. 
46 
	
	
  
मैं जानता हूं कि मन की वृलि ही सब कुछ है। जिस प्रकार प्रार्थना 
चिड़िया 
की चटर-चटर के समान केवल यांत्रिक भी हो सकती है,
उसी प्रकार उपवास भी मात्र देह की यंत्रणा का रूप ले सकता है.... न 
ऐसी प्रार्थना अंतरात्मा का स्पर्श करेगी, न ऐसा उपवास। 
यंग, 
16-2-1922,
पृ. 
103 
	
	
  
मेरा पक्का विश्वास है कि ज्यों-ज्यों देह आपके वशीभूत होती जाती है,
त्यों-त्यों आत्मा की शक्ति बढ़ती जाती है। 
यंग, 
23-10-1924,
पृ. 
354 
	
	
  
जब मनुष्य की देह उसके विरुद्ध वोंह करने लगे तो उसका दमन करना 
आवश्यक 
हो जाता है;
देह वश में आ जाए और सेवा के साधन के रूप में इस्तेमाल की जा सके 
तो फिर उसका दमन करना पाप है। दूसरे शब्दों में, देह का दमन 
अपने आप में कोई अच्छी बात नहीं हैं। 
हरि, 
2-11-1935,
पृ. 
299 
	
	
  
देहावेगों के तुष्टीकरण का त्याग करना कुछ मायने रखता है। जब तक
दैहिक आवेगों की बलि नहीं दी जाती,
ईश्वर का साक्षात्कार नहीं किया जा सकता। भगवान के मंदिर के रूप 
में देह की देखभाल एक बात है और दैहिक आवेगों की अनदेखी करना दूसरी बात है। 
हरि, 
10-12-1938,
पृ. 
373 
	
	
  
अपने और अपने सनकी साथियों के पूर्ण अनुभव के बल पर मैं बिना हिचक कहता हूं कि 
उपवास करना तब ठीक है जब आपको 
(1) कब्ज हो, (2) खून की कमी हो, 
(3) ज्वर हो, (4) अपच
हो, (5) सिरदर्द हो, (6)
वायुविकार हो, (7) संधिवात हो, (8) 
खीज और गुस्सा आ रहा हो, (9) विषाद हो,
या (10)
हर्षातिरेक हो। यदि आप ऐसा करेंगे तो न 
 डाक्टरी 
नुस्खों की जरूरत पड़ेगी, न पेटेंट दवाइयों की। 
यंग, 
17-12-1925,
पृ. 
442  | 
| 
 
पीड़क 
उपवास 
उपवास केवल उसके विरुद्ध किए जा सकते हैं जिससे आपको प्रेम हो। उपवास का उदश्य 
प्रेमी से कोई अधिकार हथियाना नहीं बल्कि उसका सुधार करना होना चाहिए;
मिसाल के तौर पर, पुत्र अपने पिता की शराब 
की लत छुड़वाने के लिए उपवास कर सकता है। बंबई और उसके पश्चात बारदोली के 
मेरे उपवास इसी तरह के थे। मैंने उनके सुधार के लिए उपवास किए थे जो मुझसे प्रेम 
करते थे। लेकिन मैं जनरल डायर को सुधारने के लिए उपवास नहीं करूंगा जो मुझे प्रेम 
नहीं करता बल्कि अपना शत्रु मानता है। 
यंग, 
1-5-1924,
पृ. 
145 
	
	
  
इससे इंकार नहीं किया जा सकता कि उपवास सचमुच पीड़क अर्थात 
दबाव 
डालने वाला हो सकता है। ऐसे उपवास किसी स्वार्थ की पूर्ति के लिए किए जाते हैं। 
किसी मनुष्य से पैसा ऐंठने या ऐसे ही किसी व्यक्तिगत प्रयोजन से किया गया उपवास 
प्रपीड़क या अनुचित दबाव डालने वाला माना जाएगा। मैं ऐसे अनुचित दबाव का प्रतिरोध 
करने की निस्संकोच हिमायत करता हूं। 
मैंने स्वयं अपने विरूद्ध या मुझे धमकाने के लिए किए गए उपवासों का सफलतापूर्वक 
प्रतिरोध किया है। और यदि यह तर्क दिया जाए कि स्वार्थ और निस्स्वार्थ भाव में तो 
बड़ा सूक्ष्म अंतर है तो मेरा कहना है कि यदि कोई व्यक्ति यह समझता है कि उसके 
विरूद्ध किए जा रहे उपवास का उप्sश्य 
स्वार्थपूर्ति या कोई और घटिया बात है तो उसे इसका दृढ़तापूर्वक प्रतिरोध करना 
चाहिए, भले ही इससे उपवास करने वाले व्यक्ति का प्राणांत हो 
जाए। यदि लोग गलत उप्sश्यों के लिए किए जाने वाले उपवासों 
की उपेक्षा करने लगें तो उपवासों से प्रपीड़न और अनुचिल प्रयोग का दोष दूर 
 हो 
जाएगा। 
अन्य सभी मानव संस्थाओं की तरह,
उपवास भी उचित और अनुचित, दोनों प्रकार का 
हो सकता है। लेकिन सत्याग्रह के साधनों में उपवास एक बड़ा महत्वपूर्ण अत्र है और 
इसके संभावित दुरुपयोग के कारण इसे त्याग देना संभव नहीं है। 
हरि, 
9-9-1933,
पृ. 
5 
	
	
  
मैं जानता हूं कि उपवास के अत्र को साधना कोई साधारण बात नहीं
है। यदि उपवास करनेवाला व्यक्ति इसकी कला में कुशल न हो तो उपवास में सहज ही हिंसा 
का पुट आ सकता है। मेरा मानना है कि मैं उपवास की कला में कुशल हूं। 
हरि,
11-3-1939,
पृ. 
46  | 
| 
 
7.
मेरी असंगतियां  | 
| 
 
मैं जिन पुरानी बातों या व्यवहारों का समझ नहीं सकता 
या 
नैतिक आधार पर इन्हें सही नहीं ठहरा सकता,
उन्हें आंख मूंदकर मानने से इंकार करता हूं। 
यंग, 
21-7-1921,
पृ. 
228 
	
	
  
मैं यह मानता हूं कि मुझमें अनेक असंगतियां हैं। लेकिन चूंकि लोग मुझे 
'महात्मा' कहते हैं इसलिए मैं इमर्सन की 
उक्ति को साधिकार दुहराते हुए कह सकता हूं कि 'मूर्खतापूर्ण 
सुसंगति छोटे दिमागों 
का हौवा है'। मेरा ख्याल है कि मेरी असंगतियों में भी एक पद्धति है। मेरे विचार 
में, मेरी जो बातें असंगतिपूर्ण दिखाई देती हैं उनमें भी सुसंगति का एक सूत्र 
विद्यमान रहता है, उसी प्रकार जैसे कि वैविध्य का दर्शन होने के बावजूद प्रछति में 
एकत्व है। 
यंग,
13-2-1930, पृ. 52 
	
	
  
मुझे भली प्रकार समझने वाले मित्रों का कहना है कि मैं जितना संयत विचारों 
वाला हूं,
उतना ही अतिवादी भी हूं और जितना परंपरानिष्ठ हूं,
उतना ही आमूलपरिवर्तनवादी भी। संभवतः इसीलिए मुझे परस्पर विरोधी 
विचारधाराओं के लोगों की मित्रता का सौभाग्य प्राप्त है। मैं समझता हूं कि मेरी 
प्रछति में यह जो मिश्रण है, वह अहिंसा के प्रति मेरे 
दृष्टिकोण का परिणाम है। 
मेरी असंगति केवल आभास के रूप में ही है। भिन्न-भिन्न परिस्थितियों में मेरी 
अनुव्या देखकर ही मेरे मित्रों को मेरी असंगतियों का आभास होता है। सच पूछा जाए तो 
प्रतीयमान सुसंगति तो विशुद्ध हठधर्मिता भी हो सकती है। 
यंग,
16-4-1931,
पृ. 
77  | 
| 
 
सुसंगति की जड़पूजा 
मैं इस बात की कतई परवाह नहीं करता कि मैं सुसंगत दिखाई दूं। सत्य की खोज करते हुए 
मैंने अनेक विचारों का त्याग किया है और बहुत-सी नयी बातें सीखी हैं। यद्यपि मैं 
वृद्ध हो गया
हूं,
पर मुझे यह बिलकुल अनुभव नहीं होता कि मेरा आंतरिक विकास रुक गया 
है या कि मेरी देह के विघटन के साथ मेरा विकास रुक जाएगा। मुझे सिर्फ इस बात से 
सरोकार है कि मैं अपने ईश्वर, अर्थात सत्य,
द्वारा समय-समय पर दिए जाने वाले आदेशों का पालन करने के लिए तत्पर 
रहूं। 
हरि, 
29-4-1933,
पृ. 
2 
	
	
  
मैंने सुसंगति की जड़पूजा कभी नहीं की। मैं सत्य का हिमायती हूं और किसी मुद्दे पर 
जिस समय जो महसूस करता हूं और सोचता हूं,
वहीं कहता हूं और इस बात की चिंता नहीं करता कि इस मुप्s
पर पहले मैं क्या कह चुका हूं.... जैसे-जैसे मेरी दृष्टि स्पष्ट 
होती जाती है, दैनिक अभ्यास से मेरे विचार भी स्पष्टतर होते 
जाते हैं। जहां मैंने जान-बुझकर राय बदली है, परिवर्तन स्पष्ट दिखाई देगा-केवल 
सावधान व्यक्ति ही उस परिवर्तन के वमिक एवं सूक्ष्म विकास को समझ पाएगा। 
हरि, 
28-9-1934, पृ. 260 
	
	
  
मेरा ध्येय किसी मुद्दे पर अपने पूर्व विचारों के साथ सुसंगति बनाए रखना 
नहीं है बल्कि किसी निश्चित क्षण पर जो सत्य दिखाई देता है,
उससे सुसंगति रखते हुए अपनी बात कहना है। इसका परिणाम यह है कि मैं 
एक सत्य से दूसरे सत्य की 
 ओर 
प्रगति करता गया हूं। 
हरि, 
30-9-1939,
पृ. 
288 
	
	
  
मैंने राजनीतिक लाभ उठाने के लिए कभी किसी सिद्धांत की बलि नहीं 
दी है। 
यंग, 
12-3-1925, पृ. 91 
	
	
  
मैं नहीं समझता कि मैंने अपने जीवन में एक भी काम 
तात्कालिक 
औचित्य को देखकर किया है। मैंने हमेशा यह माना है कि सर्वोच्च नैतिकता ही सर्वोच्च 
औचित्य भी है। 
हरि, 8-12-1933, पृ.
8  | 
| 
 
समझौता 
मुझ पर अक्सर यह आरोप लगाया गया है कि मैं जिद्दी स्वभाव का
हूं। लोग बताते हैं कि मैं बहुमत के निर्णय के आगे नहीं झुकता । मुझ पर तानाशाह 
होने का आरोप लगाया गया है- मैं जिद्दीपन या तानाशाही के आरोप से कभी सहमत नहीं हो 
पाया हूं। इसके विपरीत,
मुझे तो इस बात का फख्र है कि मैं उन मुद्दों पर लचीला रुख अपना 
सकता हूं जो महत्वपूर्ण नहीं हैं। मैं तानाशाही को नापसंद करता हूं। जिस प्रकार मैं 
अपनी आजादी और स्वतंत्रता को मूल्यवान समझता हूं, उसी 
प्रकार चाहता हूं कि ये औरों को भी हासिल हों। मैं ऐसे एक भी व्यक्ति के सहयोग की 
कामना नहीं करता जिसे मैं अपनी बात समझाकर आश्वस्त न कर सकूं।  
मैं तो इतना रुढ़िमुक्त हूं कि पुराने-से-पुराने शात्र भी मेरे विवेक की कसौटी पर 
खरे न उतरें तो उनकी दिव्यता का अस्वीकार कर दूं। लेकिन मैंने अनुभव से यह सीखा है 
यदि मैं समाज में रहना चाहता हूं तो मुझे अपनी पूर्ण स्वतंत्रता को सर्वाधिक महत्व 
के मामलों तक ही सीमित  
रखना चाहिए। अन्य मामलों में जो व्यक्ति के निजी धर्म या नैतिक 
संहिता का उल्लंघन करते हों, व्यक्ति को बहुमत का अपना साथ 
देना चाहिए। 
यंग, 
14-7-1920,
पृ. 
4 
	
	
  
अपने संपूर्ण जीवन में,
सत्य के प्रति आग्रह ने ही मुझे समझौते की खूबी को सर्वाधिक महत्व 
के मामलों तक ही सीमित रखना चाहिए। अन्य मामलों में, जो 
व्यक्ति के निजी धर्म या नैतिक संहिता का उल्लंघनन करते हों,
व्यक्ति को हुआ है और मुझे अपने मित्रों के रोष का पात्र बनना पड़ा 
है। लेकिन सत्य तो 
वज्र के समान कठोर और कुसुम के समान कोमल है। 
ए, पृ. 
107 
	
	
  
मनुष्य-जीवन समझौतों का एक सिलसिला है और जो बात 
इंसान सिद्धांत के तौर पर सही पाता है, 
उसे व्यवहार में उतारना हमेशा आसान नहीं होता। 
हरि, 5-9-1936, पृ. 237 
	
	
  
कुछ सनातन सिद्धांत ऐसे हैं जिन पर कोई समझौता नहीं किया जा 
सकता और मनुष्य को उन पर आचरण करते हुए 
 अपने 
जीवन की बलि देने के लिए उद्यत रहना चाहिए। 
वही,
पृ. 
238  | 
| 
 
8.
मेरा लेखन  | 
| 
 
बोलने में मेरी हिचक जो कभी झुंझलाहट पैदा करती थी,
अब बड़ा सुख देती है। इसका सबसे बड़ा लाभ यह हुआ है कि इसने मुझे 
मितभाषी होना सिखा दिया है। मैंने स्वभावतः अपने विचारों 
में संयम से काम लेने का अभ्यास डाल लिया है। और मै अब अपने आपको यह प्रमाणपत्र दे 
सकता हूं कि बिना सोचे-समझे शायद एक शब्द भी कभी मेरी जिहवा अथवा लेखनी से नहीं 
निकल सकता। मुझे याद नहीं आता कि कभी मुझे अपने भाषण या लेख के किसी अंश पर खेद 
व्यक्त करना पड़ा हो। इससे मैं अनेक अनर्थों और समय के अपव्यय से बच सका हूं। 
ए, पृ. 
45 
	
	
  
'इंडियन ओपीनियन' के प्रथम मास में ही मैं समझ गया था कि पत्रकारिता 
का एकमात्र ध्येय सेवा होना चाहिए। समाचारपत्रों के पास बड़ी भारी शक्ति है,
लेकिन जिस प्रकार अनियंत्रित बाढ़ का पानी पूरी बस्तियों को डुबा 
देता है और फसलों को नष्ट कर देता है, उसी प्रकार 
अनियंत्रित लेखनी की सेवा भी विनाशकारी होती है। यदि उसका नियंत्रण बाहर से किया 
जाए तो वह नियंत्रणहीनता से भी अधिक अनिष्टकर सिद्ध होता है। प्रेस का नियंत्रण तभी 
लाभकारी हो सकता है जब प्रेस उसे स्वयं अपने ।पर लागू करे। अगर यह तर्क सही है तो 
दुनिया के कितने पत्र इस कसौटी पर खरे उतरेंगे? लेकिन जो 
पत्र-पत्रिकाएं निकम्मी हैं, उन्हें कौन रोके?
अच्छाई और बुराई की तरह, निकम्मी और उपयोगी 
भी साथ-साथ चलेंगी और मनुष्य को अपना चुनाव खुद करना होगा। 
वही, पृ. 
211 
	
	
  
मेरे लेखन में किसी व्यक्ति के प्रति घृणा का भाव हो ही नहीं
सकता,
क्योंकि मेरा यह पक्का विश्वास है कि यह दुनिया प्रेम 
 के 
सहारे ही चल रही है। 
सली, सं. 
5,
17-9-1919  | 
| 
 
मेरी 
पत्रकारिता 
मैंने पत्रिकारिता के क्षेत्र में प्रवेश स्वयं पत्रकारिता की खातिर नहीं किया है 
बल्कि यह मेरे जीवन के ध्येय की पूर्ति में सहायक है,
ऐसा मानकर किया है। मेरा ध्येय अत्यंत संयम 
के साथ, उदाहरण और उपदेश देते हुए, 
सत्याग्रह के बेजोड़ अत्र के प्रयोग की शिक्षा देना है- सत्याग्रह जो अहिंसा तथा 
सत्य का प्रत्यक्ष परिणाम है.... इसलिए यदि मुझे अपने धर्म पर आरूढ़ रहना है तो 
मुझे वेध में आकर या विद्वेष की भावना से नहीं लिखना है। मुझे निष्प्रयोजन नहीं 
लिखना है। मुझे केवल उलेजना फैलाने के लिए नहीं लिखना है। 
पाठक इस बात को समझ ही नहीं सकते कि मुझे हफ्ते-दर-हफ्ते शीर्षकों और शब्दों के 
चुनाव में कितना संयम बरतना पड़ता है। यह मेरे लिए एक प्रशिक्षण है। इससे मुझे अपने 
अंदर झांकने और अपनी कमजोरियों का पता लगाने का मौका मिलता है। कई बार मेरा दंभ 
मुझे चुभने वाली भाषा का प्रयोग करने या मेरा वेध मुझे कोई सख्त विशेषण लगाने का 
आदेश देता है। यह बड़ी विकट परीक्षा हैं,
पर दुर्भावनाआं को दूर करने का यह एक उलम उपाय है। 
यंग, 
2-7-1925,
पृ. 
232 
	
	
  
लिखते समय मेरी अंतरात्मा मुझसे जो लिखाती है,
मैं लिखता जाता हूं। मैं निश्चित रूप से यह जानने का दावा नहीं 
करता कि मेरे सभी सचेतन विचार और कार्य अंतरात्मा द्वारा निर्देशित 
होते हैं। लेकिन अपने जीवन में जो बड़े-से-बड़े कदम मैंने उठाए हैं और छोटे-से-छोटे 
भी उनकी परीक्षा करने पर मैं समझता हूं कि यह कहना अनुचित नहीं होगा कि वे सभी 
अंतरात्मा द्वारा निर्देशित थे। 
ए, पृ. 
206 
	
	
  
जहां तक विचारों की उत्पलि का संबंध है, 
मुझमें कुछ मौलिकता है। लेकिन लेखन तो एक उपोत्पाद है, मैं अपने विचारों को प्रचार 
करने के लिए ही लिखता हूं। पत्रकारिता मेरा व्यवसाय नहीं है। 
हरि, 18-8-1946, पृ. 270 
	
	
  
अंततः मेरा काम ही शेष रह जाएगा, 
जो मैंने कहा अथवा लिखा है, वह नहीं। 
हरि, 1-5-1947, पृ. 93 
(स्त्रोत 
: महात्मा गांधी के विचार)  |