एकादशव्रत |
सत्य I अहिंसा I ब्रह्मचर्य I अस्वाद I अस्तेय I अपरिग्रह स्वदेशी I अभय I अस्पृश्यता | वर्णाश्रम | सहिष्णुता | शारीरिक श्रम मान्य व्यवहार में असत्य न बोलना या उसका आचरण न करना ही सत्य का अर्थ नहीं है। किन्तु सत्य ही परमेश्वर है, और उसके अलावा और कुछ नहीं है। इस सत्य की खोज और पूजा के लिए ही दूसरे सभी नियमों की आवश्यकता रहती है और उसीमें से उनकी उत्पत्ति है। इस सत्य का उपासक अपने कल्पित देशहित के लिए भी असत्य नहीं बोलेगा, असत्य का आचरण नहीं करेगा। सत्य के लिए वह प्रल्हाद के समान मातापितादि गुरुजनों की आज्ञा का भी विनयपूर्वक भंग करना अपना धर्म समझेगा। |
प्राणियों का वध न करना ही इस व्रत के पालन के लिए काफ़ी नहीं है। अहिंसा का अर्थ है सूक्ष्म जंतुओं से लेकर मनुष्य तक सभी प्राणियों के प्रति समभाव रखना। इस व्रत का पालन करनेवाला घोर अन्याय करनेवाले के प्रति भी क्रोध नहीं करेगा, किन्तु उस पर प्रेमभाव रखेगा, उसका हित चाहेगा और करेगा। किन्तु प्रेम करते हुए भी अन्यायी के वश नहीं होगा, अन्याय का विरोध करेगा, और वैसा करने में वह जो कष्ट दे उसे धैर्यपूर्वक और अन्यायी से द्वेष किये बिना सहेगा । |
ब्रह्मचर्य के पालन के बिना ऊपर के व्रतों का पालन अशक्य है। ब्रह्मचारी किसी स्त्री पर कुदफष्टि न करे केवल इतना ही पर्याप्त नहीं है, किन्तु वह मन से भी विषयों का चिन्तवन या सेवन न करे। और विवाहित हो तो अपनी पत्नी या अपने पति के साथ भी विषयभोग न करे, किन्तु उसे मित्र समझकर उसके साथ निर्मल संबंध रखे। अपनी पत्नी या दूसरी स्त्री का अथवा अपने पति या दुसरे पुरुष का विकारमय स्पर्श या उसके साथ विकारमय भाषण या दूसरी विकारमय चेष्टा भी स्थूल ब्रह्म्चर्य का भंग है। |
ऐसा अनुभव होने से कि मनुष्य जहाँ तक जीभ के रसों को नहीं जीतता, वहाँ तक ब्रह्मचर्य का पालन अति कठिन है, अस्वाद को अलग व्रत माना गया है। भोजन केवल शरीरयात्रा के लिये ही हो, भोग के लिये कभी नहीं। इसलिए उसे औषध समझकर संयमपूर्वक लेने की जरुरत है। इस व्रत का पालन करनेवाला, ऐसे मसाले वगैरह का त्याग करेगा, जो विकार उत्पन्न करें। मांसाहार, तंबाकू, भांग इत्यादि का आश्रम में निषेध है। इस व्रतमें स्वाद के लिए उत्सव या भोजन के समय अधिक खिलाने के आग्रह का निषेध है। |
इस व्रत के पालन के लिए यही काफ़ी नहीं है कि दूसरे की वस्तु उसकी अनुमति के बिना न ली जाय। वस्तु जिस उपयोग के लिए मिली हो, उससे ज्यादा मुद्त तक उपयोग करना भी चोरी है। इस व्रत के मूलमें सूक्ष्म सत्य तो यह छिपा हुआ है कि परमात्मा प्राणियों के लिए नित्य की केवल आवश्यक वस्तु ही रोज उत्पन्न करता है। उससे अधिक पैदा नहीं करता। इसलिए अपनी कम से कम आवश्यकता से अधिक, जो कुछ भी मनुष्य लेता है, वह चोरी में शामिल है। |
अपरिग्रह अस्तेय के अंतर्गत ही है । अनावश्यक वस्तु जिस तरह ली नहीं जा सकती, उसी तरह उसका संग्रह भी नहीं किया जा सकता । इसलिए जिस खुराक या साझसामान की जरुरत न हो, उसका संग्रह करना इस व्रत का भंग है । जिसका काम कुर्सी के बिना चल जाए वह कुर्सी न रखे; अपरिग्रही दिनोंदिन अपना जीवन और भी सादा करता जाय । |
मनुष्य सर्वशक्तिमान प्राणी नहीं है। इसलिए वह अपने पडोसी की सेवा करने में जगत की सेवा करता है। इस भावना का नाम स्वदेशी है। जो अपने निकट के लोगों की सेवा छोड़कर दूरवालों की सेवा करने या लेने को दौड़ता है, वह स्वदेशी का भंग करता है। इस भावना के पोषण से संसार सुव्यवस्थित रह सकता है। उसके भंग में अव्यवस्था घुसी हुई है। इस नियम के आधार पर, जहाँ तक बने, हम अपने पडोस की दुकान से व्यवहार रखें; देशमें जो वस्तु बनती हो या सहज ही बन सकती हो, उसे विदेश से न लायें। स्वदेशी में स्वार्थ को स्थान नहीं है। कुटुम्ब को, देश के लिए शहर को और जगत के कल्याण के लिए देश को बलिदान कर दिया जाय। |
सत्य, अहिंसा आदि व्रतों का पालन निर्भयता के बिना असंभव है। और हाल में जहाँ सर्वत्र भय व्याप रहा है, वहाँ निर्भयता का चिन्तन और उसकी शिक्षा अत्यन्त आवश्यक होने से, उसे व्रतों में स्थान दिया गया है। जो सत्यपरायण रहना चाहता है, वह न जाति से, बिरादरी से, न सरकार से, न चोर से, न गरीबी से और न मौतसे डरता है। |
हिन्दू धर्म में अस्पृश्यता की रूढ़ि ने जड़ जमा ली है। इसमें धर्म नहीं किन्तु अधर्म है, ऐसी मान्यता होने के कारण अस्पृश्यता-निवारण को नियम में स्थान दिया गया है। अस्पृश्य माने जाते लोगों के लिए दूसरी जातियों के बराबर ही आश्रम में स्थान है। |
आश्रम में जातिभेद को स्थान नहीं है। मान्यता ऐसी है कि जातिभेद से हिंदु धर्म का नुकसान हुआ है। उसमें छिपी हुई ऊँचनीच और छूआछूत की भावना अहिंसा धर्म की घातक है । आश्रम वर्ण व्यवहार केवल धंधे के आधीन है। और वर्णनीति का पालन करनेवाला अपनी आजीविका माँ-बाप के ऐसे धंधे से पैदा करे जो की धर्म का अविरोधी हो और अपना बाकी का समय शुद्ध ज्ञान बढानेमें और सेवामें खर्च करे। वर्णाश्रम की तरह ब्रह्मचर्य, गफहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास जैसे चार आश्रम को भी मानता है। किंतु संन्यास का केवल जंगलमें रहकर, या कर्तव्य कर्म छोड़कर, पालन हो सकता है ऐसा आश्रम नहीं मानता। सामान्य जीवन व्यतीत करते हुए संन्यास धर्म का पालन हो सकता है और करना चाहिए और वही सच्चा संन्यास है ऐसी आश्रम की मान्यता है। |
आश्रम की ऐसी मान्यता है कि जगत में प्रचलित प्रख्यात धर्म सत्य को व्यक्त करनेवाले है। किन्तु उन सभी का अपूर्ण मनुष्य के द्वारा व्यक्त होने से, सभी में अपूर्णता अथवा असत्यका मिश्रण हुआ है। इसलिए हमें अपने धर्म के लिए जैसा मान हो, वैसा ही प्रत्येक धर्म के लिए रखना चाहिए। जहाँ ऐसा समभाव हो वहाँ एकदूसरे के धर्म का विरोध संभव नहीं होता, और न परधर्मी को अपने धर्ममें लाने का प्रयत्न संभव होता है। किन्तु यही प्रार्थना और यही भावना नित्य रखनी उचित है कि सभी धर्मों के दोष देर हों । |
मनुष्यमात्र शरीरनिर्वाह शारीरिक श्रम से करे तभी वह समाज के और अपने द्रोह से बच सकता है। जिनका शरीर चल सकता है और जिन्हें समझ आ गयी है, उन सभी स्त्रीपुरुषों को अपना नित्य का सारा काम, जो स्वयं ही कर लेने योग्य हो, कर लेना चाहिए और दूसरे की सेवा बिना कारण नहीं लेनी चाहिए। किन्तु बालकों की अथवा पंगु लोगों की और वफद्ध स्त्रीपुरुषों की सेवा प्राप्त हो तो उसे करने की सामाजिक जिम्मेदारी को उठाना प्रत्येक समझदार मनुष्य का धर्म है। इस आदर्श का अवलम्बन करके आश्रम में वही मजदूर रखे जाते हैं, जहाँ अनिवार्य हो, और उनके साथ मालिकनौकर का व्यवहार नहीं रखा जाता। * इस व्रत का समावेश बापू ने बाद में किया है। |